शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

मन करता है....


 हां मन करता  है
कभी सो जाऊँ 
पेड़ के तले 
बिछाकर छोटा-सा 
एक रुमाल....!


और पी लूँ वहीं
खड़े  ठेले से
कुल्हड़ वाली चाय


और कभी प्यास लगे
तो भर लूँ  गली के नल से
अंजुरीभर  पानी और बुझा लूँ 
प्यास.....!


थक गया हूँ 
दिखावे  की हाय-हैलो से
सलीके से पहने 
कपड़ों  से...!


फास्ट-फूड के नाम पर
चायनीज़ों  के स्टेंडर्ड  से
याद आती है ,
पानी पुरी आहहहहहह"""""
उसका वो नमक-मिरच
का मिश्रण.....!!!


कहां पहुँच  गया  हूँ मैं 
देखकर‌ भी खा नहीं  सकता
लगे ....क्या सोचेंगे मेरे 
सो  कॉल्ड  मित्र !


ज़िन्दगी रफ़्तार  हो गई !
मानो उसैन बोल्ट-सी फास्ट हो गई !!!!
जो चाहा हासिल  कर लिया
जो चाहा देख लिया
गूगल मानो
घर में रखे  आईने के सामान  हो..... 
जहां जो देखो
सच ही दिखाता है..... (?)


थक गया हूँ 
वो सुकून  वाली 
नींद कहां आँखों में 
याद आते हैं 
वो दिन जब लकड़ी के पटरों पर भी
 नींद आ जाया करती थी.... 

खैनी रगड़ते दोस्तों  से भी
गले लग लिया करता था..
अब तो
ज़िन्दगी  मानो झूठी  किताब हो गई
हर शख़्स  बहुरुपिया ....
नियत
मुँह में राम  बग़ल में छुरी हो गई 

हाँ  थक गया हूँ  बहुत ...
मन करता है
सो जाऊँ  कहीं ..... !

#अनीता लागुरी (अनु )
...........................................
नोट : (तंबाकू (खैनी) सेहत के लिए हानिकारक है , प्रयास करें दूर रहें  .)
  • (चित्र साभार: गूगल)

बुधवार, 22 नवंबर 2017

नहीं रोकेंगी तुम्हें...


कभी चाहा नहीं 
कि  अमरबेल-सी 
तुमसे लिपट जाऊँ ..!!
कभी चाहा नहीं की
मेरी शिकायतें
रोकेंगी तुम्हें...!
चाहे तुम मुझे 
न पढ़ने की 
बरसों की पीड़ा का 
त्याग  करो न  करो। 
       हाँ !
ख़ामोशी  से जलना
आता है मुझे
अपने अंदर उमड़ रहे
सवालों को समेटकर.......
उदासी की सफ़ेद  चादर
ओढ़ना  पसंद है मुझे
चाहे तुम मुझे पढ़ो  या न पढ़ो ...!
मेरी स्याह रातें
मेरी करवट बदलती रातें...!
शोर करती मेरी.... 
गुपचुप सिसकियों का सच
और मुझे देखता वह चाँद अकेला..!
पर फिर भी मेरी शिकायतें
नहीं रोकेंगी तुम्हें 
चाहे तुम मुझे पढ़ने की पीड़ा का
त्याग  करो या न करो...!
#अनीता लागुरी (अनु )

(चित्र साभार : गूगल)

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

एक ज़िंदा भारतीय....


क्यों   दिखता  नहीं 
एक  ज़िंदा  भारतीय
क्यों दिखती  नहीं
भूख  से कुलबुलाती
  उसकी  अतड़ियाँ  ..!
उसकी  आशायें ,
उसकी हसरतें  ,
दिखती  कब  हैं 
  जब .....?
 वो  मर  जाता  है  !
      लोगों  की  आँखों  पर 
चढ़   जाता है  ..
           एक  अंजुरीभर  चावल  के  बदले ..!
           घर  बोरों   से  भर   जाता   है ...
           टूटी खाट आँगन  में  सज  ज़ाती है 
          बन  सूर्खियां अख़बारों  की
            बाक़ियों  की जुगाड़ कर जाता है। 
🍂🍁🍂#अनु 


चित्र साभार: गूगल ...

सोमवार, 20 नवंबर 2017

Perfection..only needs a stage.  !!!

सफ़ेद कोहरे.....

..आ रंग उड़ेल दूँ  
 तुझमें  सभी...!
ये स्याह-सफ़ेदी  
मुझे भाती नहीं ...!

तुझे भी हक़  है,
इंद्रघनुष छूने की .. .!
किसी‌ की मौत तेरी
किस्मत नहीं ..!

इन रश्म-ओ-रिवाज़ों  के
सफ़ेद  कोहरे ..!
मासूमियत को तुम्हारी
ढक  सकते नहीं ..!

ये बिखरे बाल
ये सूनी मांग.......!
ये आँखों से बहती
निर्झर जल की धारा..!

इन बंधनों  की 
क़वायद से आज़ाद 
तुझे करा दूँ ....!
आ माथे पे तेरे  बिंदी लगा दूँ ...!

 ओढ़ा दूँ ....तुझे ये
रंग सुनहरा......!
ये नीली..वो पीली...
वो चूड़ियाँ पहना दूँ ...!

आ उड़ेल दूँ ... 
तुझमें  रंग ये सारे
ये स्याह-सफ़ेदी  मुझे भाती नहीं ..!
#अनु 

चित्र : अनु लागुरी 

रविवार, 19 नवंबर 2017

भारतीय भीड़ तंत्र..(लेख)

भारतीय भीड़ तंत्र ...

       आए दिन आजकल हम सुनते हैं कि भीड़ ने फलाना  व्यक्ति को मार डाला। भीड़ ने छोटी- सी बात पर मासूम की पिटाई कर दी...... या फिर भीड़ ने धर्म के नाम पर झूठ-मूठ का अच्छे खासे माहौल को अव्यवस्थित कर दिया। अक्सर आप भी सुनते होंगे कि भीड़ ने ये किया वो किया पर क्या वहां मौजूद लोगों का हुजूम वाकई में भीड़ होती है  ? संवेदनहीन मरे हुए लोगों का हुजूम .........जो पल भर में अपने अंदर का सारा गुस्सा, कुंठा सब कुछ किसी इंसान पर निकाल देता  है!        
          मैंने इस बारे में काफी हाथ- पैर मारे फिर‌ इस निष्कर्ष  पर आई  कि उस भीड़ में  जो लोग अपने हाथ- पैर चलाते हैं  उनमें कई ऐसे लोग होते हैं...... जो उस दिन अपने घर से झगड़ा करके निकले हों...  ये  कुछ लोग ऐसे भी होते हैं  जिनकी जेबें  ख़ाली  होती हैं  ..........    अपने बच्चे अपने पिता या किसी के लिए दवाइयां या उनकी कोई भी जरूरत इत्यादि पूरी करने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं होते हो...........या कॉलेज यूनिवर्सिटी के वो टॉपर , जो डिग्रियां का टोटा अपने बगल में बांधे कंपनियों के चक्कर लगाया करते हैं।   और हर जगह से उन्हें निराशा मिलती है । ये सभी ज्यादातर बस स्टॉप ,चाय वाले की दुकान, या ठेले पर बैठे मिल जायेंगे..... इनमें  से ऐसे कई लोग होते हैं जो अपनी पारिवारिक परेशानियों से घिरे होते है  और ऐसे भी लोग होते हैं जिन्होंने सुबह से शायद  कुछ ना खाया हो या जिनके बॉस ने सरेआम उन्हें डांटा..हो.  दरअसल भीड़ इन सबका एक मिक्सर होता है । उनके अंदर की मानसिकता भले ही ना दिखे लेकिन जब वे  किसी को पीटते हैं तो यकीनन उनके अंदर यही चलता है कि हां ये मेरा बॉस है , ये वो पैसे हैं  जो मैं आज कमा नहीं पाया ........क्या ये मेरी रोटी है, जो मैं आज खा नहीं पाया।  सबके अंदर चलने वाला एक परेशानियों कुंठाओं का एक झंझावात होता है । यह  भीड़ वो भले ही सड़क पर किसी घायल व्यक्ति को अस्पताल न पहुंचाएं या किसी मजबूर की मदद न करे  परंतु जब सवाल किसी को पीटने का आता है तो न  जाने कहां से Superman वाली ताकत आ जाती है .........और ये लोग बस शुरू हो जाते हैं अपने अंदर का frustration निकालने को।   उस भीड़ के अंदर का मानसिक अंतर्द्वंद जो मौका पड़ने पर किसी इंसान की गलती पर उबल पड़ता है ।............. और वह बेचारा इंसान बेमौत मारा जाता है या बुरी तरह घायल हो जाता है ..........इसलिए किसी भीड़ के पल्ले नहीं पढ़ना चाहिए।  अपना प्रयास होना चाहिए कि अगर आप ऐसे किसी मुसीबत में पड़ रहे हैं तब   यह आपकी गलती भारी पड़ सकती है। ..........तो प्रयास कीजिए कि आप वहां से जितनी जल्दी हो सके दूर हट जाएँ  क्योंकि अब इंसानों की शकल में भेड़िये घूमते हैं । ये सरे-आम कत्ल भी कर सकते हैं। सरेआम आपकी इज्जत भी लूट सकते हैं ! क्योंकि वो जानते हैं वो एक भीड़ हैं  कोई एक इंसान नहीं।  हर मारने वाला कौन है नहीं  पता..!..............मतलब ये कुछ भी कर सकते हैं । इस भीड़ का कोई धर्म, कोई ईमान नहीं  होता है. दर असल ये होते हैं सिर्फ कुछ लबादा ओढ़े इंसानी शक्ल और इनके अंदर क्या है..! यह क्या चल रहा है ।
शायद ही  किसी को समझ आए.....!
अनु

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

अधखुली खिड़की से...

अधखुली खिड़की से,
धुएं के बादल निकल आए,
संग साथ में  सोंधी रोटी की
ख़ुशबू भी ले आए,                            
सुलगती अंगीठी
 और अम्मा का धुआँ-धुआँ
  होता मन..!
कभी फुकनी की फूं-फूं
तो कभी अंगना में
नाचती गौरैया ...ता-ता थईया..!
बांधे ख़ुशबुओं की पोटली
सूरज  भी सर पर चढ़  आया..!
जब अम्मा ने सेकीं रोटियां तवे पर...!
नवम्बर का सर्द सवेरा भी
 ख़ुद पे शरमाया....!
जब अधखुली खिड़की से....धुएं
का बादल निकल आया....!
 #अनु

चित्र साभार - गूगल 

गुरुवार, 16 नवंबर 2017

काश...कोई दे जाता...!

एक शोर ह्रदय को झंकृत करता,
मौन-मौन मनुहार ........रचाता। 

एक  दिया  मुंडेर  पर  जलता ,
नज़्म-नज़्म  संगीत  बजाता। 

एक इंतज़ार टिक-टिक सुनाता,
देख के तुमको नंगे पैर धूल लगाता। 

एक बादल कभी  ज़रा-सा  गुस्साता,
हथेलियों में मेरी कुछ बूँदें रख  जाता। 

एक एहसास तल्ख़ी का तुम्हारा,
आँखों में  मेरी आँसू  दे जाता। 

एक शोर, एक दिया,एक इंतज़ार,
हर पृष्ठ  में  जीवन का राग उकेरता। 

#अनु

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

तुलना... तुम्हारे पौरूष से...

तुम चार थे,
मैं एक थी.....!
तुम हैवान थे,
मैं मासूम थी...!
तुम बलवान थे,
मैं लाचार थी....!
तुम कायर दरिंदे थे,
मैं निरीह पशु थी...!
वो तुम्हारी जश्न की रात थी,
मेरी ज़िन्दगी  में 
लगी बदनुमा दाग थी...!
       क्यों .....?
तुम पुरुष थे...?
मैं एक स्त्री थी...।
#अनु 

सोमवार, 13 नवंबर 2017

तुम कवि हो...पर मै.......!

तुम कवि हो ना,

शब्दों  को आकार


देते हो,


मैं  एक कड़वा  सच  हूँ 

सच को नंगा करना 


मेरी  आत्मसंतुष्टि  है ।


तुम्हारे  विचारों के प्रबल वेग का 

कोई छोर नहीं ।

और मैं ...... गंतव्य का भटका राही,


तलाश-ए- मंज़िल  की दौड़ में 


गुमनाम बना फिरता हूँ ...


तुम्हारी  कल्पनाऐं 

अंतहीन हैं ।


मैं  दर्द को सीता हूँ ...!


उसकी चुभन से ,


ख़ुद की कहानियां


लिखता हूँ .…!


तुम लेते हो सहारा क़लम  का

मेरी तो आँखें  पनीली होती हैं ,


होगे तुम कवि कहीं के


मैं  बस मैं  हूँ .......!


कल्पनाओं से परे...!


जीता हूँ  संग  बिडम्बनाओं  के

मरता हूँ  संग वर्तमान के...!


एक यथार्थवादी....!

#अनु

रविवार, 12 नवंबर 2017

चाय की चुस्कियां संग जिंदगी के.......

Hot Tea..


ज़िन्दगी  ने फिर से 
बनी बनाई चाय
उड़ेल दी कप में  मेरे ,
चाहे चाय ,
बेस्वाद ही क्यों  न बनी हो।
हर बार की तरह
अपनी परेशानियों  में  लिपटी ,
वो पास आ जाती  है 
और मुझसे  कहती  है 
छोड़े जा रही  हूँ ,
तकिये के नीचे तुम्हारी 
कुछ तकलीफ़ों  की गठ्ठरी,
संभाल लेना हर बार की तरह 
और  लगा प्यार से,
चपत गालों  पे  मेरी...!
छोड़े जाती है  
उन तकलीफ़ों  के साथ
जो रोज़  परत-दर-परत 
मुझमें  प्रहार करती हैं ।
और मेरे टूटकर बिखरने का 
इंतज़ार भी
बिना चीनी की  
बेस्वाद  चाय की तरह.....!!!
#अनु
(  चित्र साभार गुगल)

बुधवार, 8 नवंबर 2017

मुझसे दूर तो कभी नहीं जाओगे ना--------------!!!!!!




आज फिर तुम साथ चले आए

घर की दहलीज़  तक..!
पर वही सवाल फिर से..!
क्यों मुझे दरवाज़े तक छोड़
विलीन हो जाते हो इन अंधेरों में..?
क्यों नहीं लांघते  इन  दहलीज़ों को..?
जानती हूँ  तुम्हें पता है ना
मेरा वो अंधेरों से  डर...!

अब भी याद आता है मुझे

तुम्हारा वह मेरा हाथ थाम लेना..!

जब अचानक रोशनी
गुम हो जाती थी..!
और मैं चिहुंक कर
तुम्हारे सीने से लग जाती थी
और महसूस करती थी 

तुम्हारी बाहों का वह मज़बूत घेरा 

जो मुझसे कहता था 

अनु मैं हूँ  ना...!!!!
और मैं सिमटी सहमी
पूछती तुमसे...!!!
मुझसे दूर कभी नहीं जाओगे ना....???
और तुम मुस्कुरा देते.... 
अपने  वही चिर-परिचित अंदाज़  में
और कहते मुझसे नहीं पगली!
 धत्त...!!!!!!!
मैं भी ना....!!!
 कहाँ खो जाती हूँ 
और अब मैं अंधेरों में
मोमबत्ती तलाशती 

तुम्हारी तस्वीर को

अपलक खड़ी देखती रह रही हूँ..!

धीरे-धीरे तुम्हारी छवि
धूमिल होने लगी है..!
पर तुम्हारी यादें  नहीं..!
जानती हूँ  तुम साथ नहीं हो 

पर जब भी ये घने अंधेरों के साए 
मुझे डराएंगे...!

तुम उस वक़्त मेरे साथ रहोगे...!

मेरी परछाई बनकर......!
 🍁🌺#अनु


बस्ते में इन्हेलर ....!

सांसों  पे  मेरी 
पाबंदियां मत लगाओ ..|
मेरी इन मासूम आखों  में
सवाल  खड़े  मत  करो
क्या ये मेरा भविष्य है?
आँखों में  डर
मुँह  पर  मास्क
बस्ते में  इन्हेलर ....!

ये  सांसें  मेरी हैं .....
इन्हें  ज़हर देकर मत  खरीदो.....
मुझे भी हक़ है
अपने हिस्से की  ज़मीन को  छूने  का
लालच में अपनी... 
मेरी क़ब्रगाह मत खोदो....|
  #अनु

गुरुवार, 2 नवंबर 2017

तू मेरी ज़िंदगी की खुली किताब हो गई.....


तू मेरी ज़िंदगी की खुली किताब हो गई.....
शहरों के शहर....
तमाम गुल हो गए....!
तेरे ......आने से ....!
ऐ परी!
मिज़ाज-ए-मौसम की तपिश मखमली हो गई
कभी धूप-सी खिली
तो कभी दिसंबर की सर्द शाम हो गई।
तुझे सोचकर सोने की हर कोशिश मेरी
मुझसे लिपटकर अब ख़्वाब हो गई
हर शै को है
तेरी ख़ुशबुओं से राब्ता ऐ परी!
तेरे आने से चाँद भी
अब शरमा गया ...!
तुम तक पहुँचने की हर चाह मेरी
यूँ ही शबनमी नूर हो गई
तुम मेरी तन्हाइयों के बादल हो
जो तुम्हारे हँसने से ख़फ़ा हो गए
शहरों के शहर ...
तमाम गुल हो गए...!
तेरी निगाहों से वाबस्ता
मेरे फ़साने आम हो गए
शहरों के शहर......
तमाम गुल हो गए...!
तेरे आने से ऐ परी!
मेरी छुपी ख़ामोशियों के पंख उग आये
मैं इश्क़-इश्क़ करता रहा और
तू मेरी ज़िंदगी की खुली किताब हो गई...... !
#अनु

बुधवार, 1 नवंबर 2017

प्याज संग आधी रोटी,

प्याज़  रोटी और कविता

कभी खाई है प्याज़ संग रोटी

और पिया है आधे  भरे गिलास का पानी

जब अतड़ियाँ  दहाडें  मार मारकर रोती हैं

और एक नंगा बदन करवट बदल बदलकर

चादर ताने सो जाता है

न चाहते हुए भी

मरी हुई आँखों से रोटी के सपने देखता है

और कोसता है  ख़ुद  को  मर जाऊँ या मार दो मुझे

खाली बर्तन, टूटी छत और दरवाज़ों से आती

हिचकी... भूख और बेरोज़गारी की

और पल-पल खिड़की से झांकता वो काला यमराज

कभी लगा नहीं अपनी जिंदगी के 35 वें साल में

एक ऐसा भी वक़्त आएगा

मांगी हुई रोटी के साथ आधा टुकड़ा प्याज़ का खाऊँगा

साथ में खड़ी है नंगों की फ़ौज

और मुँह  चिढ़ाती नमक की ख़ाली डेलियाँ

सिसकती जवानी ख़त्म हो गई संग चूहों की दौड़ में

हाँ  मैंने खाया  है प्याज़  संग रोटी का टुकड़ा

नंगी अतड़ियों को ओढ़कर

और लगा कहानी लिखने अपनी

कुछ सच और कुछ  झूठ जोड़कर

पर मैं जानता हूँ मेरा दर्द, मेरी भूख

तुम्हारे  मेरी कविता पढ़ने तक ही होगी

जगन्नाथ रद्दी में फेंक चल दोगे आधे प्याज़  की तरह

और मैं किसी रात मर जाऊँगा

इस टूटी झोपड़ी के अंदर

अपनी सड़ी हुई कविता के साथ

#अनु🍁🍁🍁🍁

मेरे बाबा

"तू  है  हत्यारा" .

बाबा

जब हम छोटे थे........!

तब भी

कभी कहा नहीं  ..!

आपसे कि

मुझे ला दो वो "छुकछुक"

रेलगाड़ी.........!!!!!!!

कभी नहीं  मांगी

वो  "चॉकलेट"  महँगी !

वो "जींस" भी नहीं  चाही ...

जिसके सपने अक्सर  देखे  मैंने..!

खुश रहा अक्सर उसी में .........!

जो आपने हमें  दिया ,

जो माँ  ने हमें  दिया,

कभी फैलाया हाथ नहीं ......!!

कभी न की  ज़िद हमने....!!!

सदैव रखा ख़ुद  को ..,

मज़बूत निगाहों  में  आपकी...!

क्योंकि   आप हमारे जीवन संबल थे बाबा....!

माना अब  हूँ 

बेरोज़गार मैं ...!

जेबें  हैं   ख़ाली  मेरी ... हाथों  में  हैं  आपके सपने सारे.....!!!

पर हौसला आप थे मेरे..!

मेरी नाकामियाँ  आपको

झुका नहीं  सकतीं ....!

यह  सोचकर बढ़ता रहा

जीवन पथ पर अपने

पर आज क्यों  कमज़ोर ,अहसाय

बने बैठे हो ...!

क्यों  ख़ाली ज़मीन पर लेटे हो...?

याद है  मुझे,

मैंने खाई थीं  रोटियां चार.,

आपने आधी भी नहीं ....!

पर फिर भी उठाकर कांधों  पर ......

दौड़ लगाई स्कूल तक

धूप हो या छांव....!

आपकी मज़बूत परछाई ने हमेशा मुझे बचाकर रखा....!

दीपावली के हों  पटाखे

या होली के रंग

हर चीज़  से नवाजा बचपन को मेरे...!

जब गिर पड़ा था सीढ़ियों से मैं ...,

लगा  था  प्लास्टर पैरों  पर...!

मेरी लाठी बन उठाए फिरते थे मुझे,

कभी स्कूल  तो कभी धर...!

फिर क्यों   बाबा,

कब जवाब दे गई हिम्मत आपकी,

नाकामी को मेरी सह नहीं  पाए...,

लगा के फांसी अरमानों  की

क्यों फंदे  पर झूल गये..?

एक विश्वास  तो किया होता बेटे पर अपने .....!

कहा तो होता चल ..,

आज  नहीं  तो कल ही सही

पर नहीं  कहा कुछ भी ...

कायर बन लगा ली फांसी....!!!!!!!!

अब....

कैसे उठाऊँ  अर्थी  को

आपकी....?

कांधों  पर आपका  विश्वास ,

आपका स्नेह घेरा बनाए बैठा है

सारे कहते हैं  मुझसे......

"तू  है  हत्यारा" ....!!!

अपने बाबा का.......

तुझे हक़  नहीं  अर्थी  को कांधा  देने का ........ 

#अनु🌺🍂🍁

वो पगली,

,,🍂🍁🍀

अक्सर गली के चौराहे पर.....!

वो घूरती नीली-सी नज़र

ठिठका जाती कदमों को मेरे....!

एक पल को जड़ हो जाता मैं....

और लगता चोरी से.....

निहारने उसे,

वो बिखरे बालों वाली

फटे चिथड़ों  से,

तन को लपेटने वाली....!

यौवन की ओर अग्रसर

वह पगली मुझे...!

अनायास ही खींच लेती..अपनी ओर.!

और मैं बावरा,

पल में  उसके रोने,

पल में  उसके हँसने की

जादूगरी को देख..!

मन ही मन मुस्करा देता

और पास जाकर पूछ बैठता

रोटी खाई तुमने...?

क्या तुम्हें भूख लग रही है..?

और वो........

न जाने कौन सी  अक्षुण

अनुभुति लिए कहती मुझसे...

धत्त बाबू...!!!

#अनु 🌺🍂🍂🍁

तापस


मेरी डायरियों के पन्नों में,
रिक्तता शेष नहीं अब,
हर शुं तेरी बातों का
सहरा है..!
कहाँ  डालूं इन शब्दों की पाबंदियाँ
हर पन्ने में अक्स तुम्हारा
गहरा है...!
वो टुकड़ा बादल का,
वो नन्हीं-सी धूप सुनहरी,
वो आँगन  गीला-सा,
हर अल्फ़ाज़ यहां पीले हैं।
तलाशती फिर रही हूँ ..
शायद कोई तो रिक्त होगा
वो मेरा नारंग रंग....!
तुम्हें पढ़ने की मेरी अविरल कोशिश..!
और मेरे शब्दों की टूटती लय..!
वो मेरी मौन मुखर मुस्कान..
कैसे समाऊँ  पन्नों में ..?
हर शुं तेरी यादों  का सहरा है.........
तापस..!!!
कहाँ  बिखेरुं इन शब्दों की कृतियाँ.....?
यहाँ  रिक्तता शेष  नहीं  अब.....!
तुम्हारी मृदुला
#अनु