हां मन करता है
सच ही दिखाता है..... (?)
नींद आ जाया करती थी....
अब तो
ज़िन्दगी मानो झूठी किताब हो गई
नियत
मुँह में राम बग़ल में छुरी हो गई
मन करता है
सो जाऊँ कहीं ..... !
#अनीता लागुरी (अनु )
भावों को शब्दों में अंकित करना और अपना नज़रिया दुनिया के सामने रखना.....अपने लेखन पर दुनिया की प्रतिक्रिया जानना......हाशिये की आवाज़ को केन्द्र में लाना और लोगों को जोड़ना.......आपका स्वागत है अनु की दुनिया में...... Copyright © अनीता लागुरी ( अनु ) All Rights Reserved. Strict No Copy Policy. For Permission contact.
प्याज़ रोटी और कविता
कभी खाई है प्याज़ संग रोटी
और पिया है आधे भरे गिलास का पानी
जब अतड़ियाँ दहाडें मार मारकर रोती हैं
और एक नंगा बदन करवट बदल बदलकर
चादर ताने सो जाता है
न चाहते हुए भी
मरी हुई आँखों से रोटी के सपने देखता है
और कोसता है ख़ुद को मर जाऊँ या मार दो मुझे
खाली बर्तन, टूटी छत और दरवाज़ों से आती
हिचकी... भूख और बेरोज़गारी की
और पल-पल खिड़की से झांकता वो काला यमराज
कभी लगा नहीं अपनी जिंदगी के 35 वें साल में
एक ऐसा भी वक़्त आएगा
मांगी हुई रोटी के साथ आधा टुकड़ा प्याज़ का खाऊँगा
साथ में खड़ी है नंगों की फ़ौज
और मुँह चिढ़ाती नमक की ख़ाली डेलियाँ
सिसकती जवानी ख़त्म हो गई संग चूहों की दौड़ में
हाँ मैंने खाया है प्याज़ संग रोटी का टुकड़ा
नंगी अतड़ियों को ओढ़कर
और लगा कहानी लिखने अपनी
कुछ सच और कुछ झूठ जोड़कर
पर मैं जानता हूँ मेरा दर्द, मेरी भूख
तुम्हारे मेरी कविता पढ़ने तक ही होगी
जगन्नाथ रद्दी में फेंक चल दोगे आधे प्याज़ की तरह
और मैं किसी रात मर जाऊँगा
इस टूटी झोपड़ी के अंदर
अपनी सड़ी हुई कविता के साथ
#अनु🍁🍁🍁🍁
"तू है हत्यारा" .
बाबा
जब हम छोटे थे........!
तब भी
कभी कहा नहीं ..!
आपसे कि
मुझे ला दो वो "छुकछुक"
रेलगाड़ी.........!!!!!!!
कभी नहीं मांगी
वो "चॉकलेट" महँगी !
वो "जींस" भी नहीं चाही ...
जिसके सपने अक्सर देखे मैंने..!
खुश रहा अक्सर उसी में .........!
जो आपने हमें दिया ,
जो माँ ने हमें दिया,
कभी फैलाया हाथ नहीं ......!!
कभी न की ज़िद हमने....!!!
सदैव रखा ख़ुद को ..,
मज़बूत निगाहों में आपकी...!
क्योंकि आप हमारे जीवन संबल थे बाबा....!
माना अब हूँ
बेरोज़गार मैं ...!
जेबें हैं ख़ाली मेरी ... हाथों में हैं आपके सपने सारे.....!!!
पर हौसला आप थे मेरे..!
मेरी नाकामियाँ आपको
झुका नहीं सकतीं ....!
यह सोचकर बढ़ता रहा
जीवन पथ पर अपने
पर आज क्यों कमज़ोर ,अहसाय
बने बैठे हो ...!
क्यों ख़ाली ज़मीन पर लेटे हो...?
याद है मुझे,
मैंने खाई थीं रोटियां चार.,
आपने आधी भी नहीं ....!
पर फिर भी उठाकर कांधों पर ......
दौड़ लगाई स्कूल तक
धूप हो या छांव....!
आपकी मज़बूत परछाई ने हमेशा मुझे बचाकर रखा....!
दीपावली के हों पटाखे
या होली के रंग
हर चीज़ से नवाजा बचपन को मेरे...!
जब गिर पड़ा था सीढ़ियों से मैं ...,
लगा था प्लास्टर पैरों पर...!
मेरी लाठी बन उठाए फिरते थे मुझे,
कभी स्कूल तो कभी धर...!
फिर क्यों बाबा,
कब जवाब दे गई हिम्मत आपकी,
नाकामी को मेरी सह नहीं पाए...,
लगा के फांसी अरमानों की
क्यों फंदे पर झूल गये..?
एक विश्वास तो किया होता बेटे पर अपने .....!
कहा तो होता चल ..,
आज नहीं तो कल ही सही
पर नहीं कहा कुछ भी ...
कायर बन लगा ली फांसी....!!!!!!!!
अब....
कैसे उठाऊँ अर्थी को
आपकी....?
कांधों पर आपका विश्वास ,
आपका स्नेह घेरा बनाए बैठा है
सारे कहते हैं मुझसे......
"तू है हत्यारा" ....!!!
अपने बाबा का.......
तुझे हक़ नहीं अर्थी को कांधा देने का ........
#अनु🌺🍂🍁
,,🍂🍁🍀
अक्सर गली के चौराहे पर.....!
वो घूरती नीली-सी नज़र
ठिठका जाती कदमों को मेरे....!
एक पल को जड़ हो जाता मैं....
और लगता चोरी से.....
निहारने उसे,
वो बिखरे बालों वाली
फटे चिथड़ों से,
तन को लपेटने वाली....!
यौवन की ओर अग्रसर
वह पगली मुझे...!
अनायास ही खींच लेती..अपनी ओर.!
और मैं बावरा,
पल में उसके रोने,
पल में उसके हँसने की
जादूगरी को देख..!
मन ही मन मुस्करा देता
और पास जाकर पूछ बैठता
रोटी खाई तुमने...?
क्या तुम्हें भूख लग रही है..?
और वो........
न जाने कौन सी अक्षुण
अनुभुति लिए कहती मुझसे...
धत्त बाबू...!!!
#अनु 🌺🍂🍂🍁