ये मन
धूं-धूं जलता है
जब ये मन
तन से रिसते
ज़ख़्मों के तरल
ओढ़ के गमों के
अनगिनत घाव
जब जला आती हूँ
अलाव कहीं
धीमी-धीमी आंच पर
सुलगता है ये मन
उन सपनों की मानिंद
जो आँखें यों ही
देखती हैं मेरी
अनगिनत रतजगी
रातों को
ये धूं-धूं जलता
ये मेरा मन
पिघलता है
मोमबत्ती-सा
और यों ही
गर्म हो उठता है
उस अलाव-सा
,
जिसे छोड़ आई
थी कहीं..
उस अकेले चांद संग...!
# अनीता लागुरी (अनु)