#एक कविता उन मज़दूरों के नाम जो कोरोना की वजह से घरों की ओर लौट रहे हैं |
...........................
शहरों में कहाँ ख़ाली हो गए मज़दूरों के घर
बन बंजारा मज़दूर चल दिए
अपने गाँव - घर
रास्ते की थकान को कम करने के लिए
वह लिखता है ख़ुद पर एक कविता-
हर रात
अपनी हिम्मत को समेटे चल पड़ता हूँ
अनगिनत लोगों की भीड़ में
कभी हँसता हुआ
तो कभी गहन चिंता में डूबा हुआ
बस चलता जाता हूँ
और भूल जाता हूँ
रास्ते में मिलीं अनगिनत ठोकरों को
श्वांस को अंदर करके
अपनी चप्पल में बन आए छेद को
अपने दर्द से सीता हूँ
लेकिन रुकता नहीं हूँ
पहूँचना चाहता हूँ उन गलियों में
जहाँ गांव के किनारे
लाल मिट्टी से रंगा
वह मेरा खपरैल का घर
मेरा इंतज़ार कर रहा होता है
फिर सुस्त हो जाता हूँ चलते- चलते
वहीं कहीं पेड़ की घनी छांव में
लेटकर तारों से बतियाना चाहता हूँ
मुन्ने की अम्मा को अपनी घर वापसी की बात बताना चाहता हूँ
लेकिन नहीं... समय नहीं है
फिर भी अंदर कहीं टटोलता हूँ ख़ुद को
तो पाता हूँ एक सहमा-सा बच्चा
जो अभी भी नहीं जानता
कि कितना सफ़र और उसे तय करना है।
अभी भी सड़क में बने गड्ढे में
जमा हुए पानी में
आँखमिचोली खेलते हुए
चाँद के गोलाकार अक्स को
गाँव के चूल्हे में चढ़ी
धू-धू करके जलती हुई लकड़ी
के मध्य बनती हुई रोटी समझ लेता हूँ
जबकि जानता हूँ
मेरे अँगौछे में एक सूखी रोटी भी नहीं
हाँ, मैं एक मज़दूर हूँ
बहुत खींचा तुम्हारे ठेले को
बहुत सँवारा मॉल और बिल्डिंग को
अब जाना चाहता हूँ घर की ओर!
@अनीता लागुरी 'अनु'
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 01 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमजदूर दिवस को सार्थक करती सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(०२-०५-२०२०) को "मजदूर दिवस"(चर्चा अंक-३६६८) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
**
अनीता सैनी
अत्यंत मार्मिक जीवंत चित्रण प्रस्तुत करती हृदयस्पर्शी रचना जो अभावग्रस्त जीवन की मर्मान्तक पीड़ा को भाव गाम्भीर्य के साथ अभिव्यक्ति दे रही है। सबसे बड़ी बिडंबना तो यह है कि इन घटनाओं के हम बेबस साक्षी है।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना।
बधाई एवं शुभकामनाएँ।
लिखते रहिए।
हृदय स्पर्शी।
जवाब देंहटाएंअंतरस्थल तक उतरती यथार्थ वादी कविता ।
उत्तम सृजन।
हृदय स्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंबेहद गंभीर भाव जो मन की सुप्त संवेदना को तरल कर दे।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचना अनु।
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच( सामूहिक भाव संस्कार संगम -- सबरंग क्षितिज [ पुस्तक समीक्षा ])पर 13 मई २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंhttps://loktantrasanvad.blogspot.com/2020/05/blog-post_12.html
https://loktantrasanvad.blogspot.in
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
मजदूरों की समसामयिक स्थिति को दर्शातीहृदयस्पर्शी
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन.....
गंभीर भाव
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
बधाई एवं शुभकामनाएँ।