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एक बस्ती में
एक चीख उभरी थी,
श्रेणी थी डर...
उसी बस्ती में दोबारा
दो तीन चीखें और उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी निराशा और हताशा
कुछ दिनों बाद
कुछ बड़े समूहों की चीखें उभरी
अबकी उसकी श्रेणी थी एकजुटता
और कुछ समय बाद
कुछ और चीखें दहलीजों के बाहर उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी हिम्मत , क्रोध
और अब आजकल
चीखें ही चीखें उभर रहीं हैं,
बिना डरे बिना घबराए
उन चीखों ने जुनून का रूप अख्तियार कर लिया है
हक और हुकूक की बातों के लिए
अपने अस्तित्व और अपने मान सम्मान के लिए
उस बस्ती ने अपनी चीखों को हथियार बना लिया
अब उसकी कोई श्रेणी नहीं
अब उसकी कोई भय नहीं
अब चीखें आदोलन करती है
अब चीखे आवाज कहलाती है
विद्रोह के गीत गुनगुनाती नहीं
मशालें लेकर.. तख्तियाँ पकड़ कर
चीखों को आंदोलनों में तब्दील करती हैं
🍁🍂🍁अनु लागुरी
भावों को शब्दों में अंकित करना और अपना नज़रिया दुनिया के सामने रखना.....अपने लेखन पर दुनिया की प्रतिक्रिया जानना......हाशिये की आवाज़ को केन्द्र में लाना और लोगों को जोड़ना.......आपका स्वागत है अनु की दुनिया में...... Copyright © अनीता लागुरी ( अनु ) All Rights Reserved. Strict No Copy Policy. For Permission contact.
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मंगलवार, 7 जनवरी 2020
चीखें...
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