दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में
कुछ अनचाहा हुआ था
चिथड़ों में बांधे उसे कोई छोड़
गया था..!
उठा अंधेरे का फ़ाएदा
कुछ अनचाहा हुआ था
चिथड़ों में बांधे उसे कोई छोड़
गया था..!
उठा अंधेरे का फ़ाएदा
बना गुनाहों की गठ्ठरी
क्योंकर कोई फेंक गया था..?
यह सवाल
कुछ अन्य चंद सवालों से
बड़ा था...
वह नवजात माँ के गर्भ से
बाहर निकल धूल पर पड़ा था...!
बड़ा था...
वह नवजात माँ के गर्भ से
बाहर निकल धूल पर पड़ा था...!
बदन पर कपड़े के नाम पर
गर्भनाल लिपटा था..!
परिस्थितियों से बेपरवाह
समय के ज्ञान से अंजान..
चिहुंककर रो पड़ता...!
वह मासूम नन्हीं-सी जान
रोना भी वो रोना नहीं था उसका
भला एक दिन का
जन्मा नवजात
क्या जाने रोना या रीत दुनिया की
वह तो चला आया
जीवन जीने.!
क्या जाने रोना या रीत दुनिया की
वह तो चला आया
जीवन जीने.!
कभी कभार चुप हो जाता ..!
फिर अचानक उसे लगता
फिर अचानक उसे लगता
कि वह तो भूखा है
फिर रोता है
अंदर के आक्रोश को
चीख़ों के साथ बताता है।
फिर रोता है
अंदर के आक्रोश को
चीख़ों के साथ बताता है।
शायद सवाल पूछना चाहता होगा...?
ख़ुद के जन्म का
ख़ुद के जन्म का
सामाजिक सरोकार से अपडेट चाहता होगा..!
क्या है वो...!
कौन है वो...!
किन्हीं दो नासमझ की भूल...?
या आज के युवाओं की मॉडर्न ज़रूरत ?
या किसी मासूम के साथ घटी कोई दुर्घटना ?
ख़ैर बातें तो होती हैं
पर उसका क्या....?
वो मासूम भुगत रहा किस बात की सज़ा ?
हाँ ....उसे तो चीटियाँ काट रही हैं ।
ये पत्थर भी चुभ रहे हैं उसे शूल की तरह
इस फटी चादर के झीने कोनों से
ठंड भी घुसने को लालायित
उसकी नरम चमड़ी को
क्या है वो...!
कौन है वो...!
किन्हीं दो नासमझ की भूल...?
या आज के युवाओं की मॉडर्न ज़रूरत ?
या किसी मासूम के साथ घटी कोई दुर्घटना ?
ख़ैर बातें तो होती हैं
पर उसका क्या....?
वो मासूम भुगत रहा किस बात की सज़ा ?
हाँ ....उसे तो चीटियाँ काट रही हैं ।
ये पत्थर भी चुभ रहे हैं उसे शूल की तरह
इस फटी चादर के झीने कोनों से
ठंड भी घुसने को लालायित
उसकी नरम चमड़ी को
निर्ममता से सहला जाती है
तो कभी सड़क के किनारे
चमचमाती दो जोड़ी गुर्राती आँखें
चमचमाती दो जोड़ी गुर्राती आँखें
उसका मुआवना कर बढ़ जातीं आगे
मानो चेतावनी दे रहीं हों
रात जरा और गहरा जाए...!
मानो चेतावनी दे रहीं हों
रात जरा और गहरा जाए...!
अब तो ये उस नन्हे को भी
अहसास हो चला था।
वो अकेला इस कूड़ेदान में पड़ा था
न जाने किसके भावुक पलों का
दंश एक मासूम अनचाहे ही भोग रहा था
कब तक चलेंगीं सांसें उसकी
एक घंटे... दो घंटे....... !
या क़िस्मत का मारा
जी जायेगा...?
अहसास हो चला था।
वो अकेला इस कूड़ेदान में पड़ा था
न जाने किसके भावुक पलों का
दंश एक मासूम अनचाहे ही भोग रहा था
कब तक चलेंगीं सांसें उसकी
एक घंटे... दो घंटे....... !
या क़िस्मत का मारा
जी जायेगा...?
हाँ दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में
कुछ अनचाहा ज़रूर हुआ था
यह सवाल विचलित खड़ा था.....!!!
कुछ अनचाहा ज़रूर हुआ था
यह सवाल विचलित खड़ा था.....!!!
#अनीता लागुरी (अनु)