चित्र गूगल से साभार
मरुस्थल चीत्कार उठा
प्रसव वेदना से कराह उठा
धूल-धूसरित रेतीली मरूभूमि में
नागफनी का पौधा
ढीठ बन उग उठा
था उसका सफ़र बड़ा कठिन
बादलों ने रहम न दिखाया
न उसे कोई उर्वरक मिला
ज़मीं से नमी का सहारा न मिला
फिर भी ढीठ नागफनी का पौधा
बेशर्म बन उग उठा
चाहा तो उसने भी था
कि कोई भर लेता उसे भी
प्यार से अंकपाश में अपने
और सहलाता सजाता,
केश-लतिकाओं में अपने
मगर वह गुलाब नहीं था
बिडंबना उसकी क़िस्मत की
काँटे थे गुलाब और नागफनी में
मगर स्वीकारा गया गुलाब
और नागफनी!
यों ही अकेली ढीठ बन,
मुस्कुराकर मार्मिक मरुभूमि में
रह गयी बेकल बेचारी
कह गयी नई परिभाषा वह
जिजीविषा के आधार की!
मगर जाग जाती थी कभी-कभी
दबी संवेदना उसकी
वह भी रो लेती थी चुपके से
जब तितली मंडराकर उसके ऊपर से
नज़रें फेरकर निकल जाती
इंतज़ार करती थी शिद्दत से
मगर लोगों की हेय दृष्टि बदल न सकी
तो उसने ख़ुद को ही
रूपांतरित करने का निश्चय किया
बन स्वाभिमानी
नागफनी का पौधा
गरम थपेड़े खाते-खाते
ठंड की मार सहते-सहते
संघर्षों की गाथा लिखता गया
कभी न मुरझाना
कभी निराश न होना
ख़ुद को समझाता गया
अपनी पत्तियों को
काँटों में रूपांतरितकर
देहयष्टि को माँसल बना
सहेजकर जल की बूँदें
ढीठ बन
धारा के विरुद्ध भी जी गया
अगली बरसात तक
पानी बचाकर ग़म पी गया
अरे देखो!
जीवन संगीत का नया राग
इठलाकर सुना गयी!
वह रेगिस्तान में उग आयी थी
जीवन संघर्ष-सी एक रागिनी
मुस्कुरा उठी थी एक नागफनी!
@अनीता लागुरी 'अनु'
|
भावों को शब्दों में अंकित करना और अपना नज़रिया दुनिया के सामने रखना.....अपने लेखन पर दुनिया की प्रतिक्रिया जानना......हाशिये की आवाज़ को केन्द्र में लाना और लोगों को जोड़ना.......आपका स्वागत है अनु की दुनिया में...... Copyright © अनीता लागुरी ( अनु ) All Rights Reserved. Strict No Copy Policy. For Permission contact.
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रविवार, 8 दिसंबर 2019
ढीठ बन नागफनी जी उठी!
बुधवार, 4 दिसंबर 2019
मोनालिसा की मुस्कान.!
चित्र गूगल से साभार
**********
एक बौराये हुए कवि ने
आर्ट गैलरी में घूमते हुए,
मुस्कुराती हुई मोनालिसा की
पेंटिंग से पूछा..!
तुम मुस्कुरा रही हो
या फिर मैं तुम्हें देखकर
मुस्कराने की तैयारी कर रहा हूँ
सच है तुम्हारी मुस्कान सिर्फ़
रेगिस्तान में नागफनी ही उगा सकती है
जर्जर पड़े मकानों में
इंद्रधनुष नहीं उगा सकती हैं
मोनालिसा की पेंटिंग ने
तीखी की अपनी बरौनियाँ
और कह डाला कवि से
तुम 21वीं सदी के कवि हो
मैं 1503 का एक अनसुलझा रह्स्य
मेरी मुस्कान में विलुप्त कुछ भी नहीं
तुम आज भी अपने ही सवालों के घेरे में
अपनी अंतरआत्मा को कोसते हुए
विकल्प तलाशते हो
परंतु मेरी स्थिर मुस्कान
कई शताब्दियों तक भी यों ही क़ाएम रहेगी
क्योंकि मैं विकल्प नहीं
विकल्प मुझे तलाशते हैं।
🍂🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁
#अनु लागुरी
शुक्रवार, 1 नवंबर 2019
आरे के सोते हुए जंगल...
रात्रि का दूसरा पहर,
कुछ पेड़ ऊँघ रहे थे
कुछ मेरी तरह
शहर का शोर सुन रहे थे
कि पदचापों की आती लय ताल ने
कानों में मेरे,
पंछियों का क्रंदन उड़ेल दिया.....
कुछ पेड़ ऊँघ रहे थे
कुछ मेरी तरह
शहर का शोर सुन रहे थे
कि पदचापों की आती लय ताल ने
कानों में मेरे,
पंछियों का क्रंदन उड़ेल दिया.....
तभी देखा अँधेरों में
चमकते दाँतों के बीच,
राक्षसी हँसी से लबरेज़ दानवों को
जो कर रहे थे प्रहार हम पर
काट रहे थे हमारे हाथों को
पैरों को और गले को
चीख़ें हमारी अनसुनी कर.....
धड़ाधड़ प्रहार पर प्रहार कर
आरे के जंगल को काट डाला आरियों से
चमकते दाँतों के बीच,
राक्षसी हँसी से लबरेज़ दानवों को
जो कर रहे थे प्रहार हम पर
काट रहे थे हमारे हाथों को
पैरों को और गले को
चीख़ें हमारी अनसुनी कर.....
धड़ाधड़ प्रहार पर प्रहार कर
आरे के जंगल को काट डाला आरियों से
क्यों हमारे अस्तित्व को
पलभर में नकार दिया
क्यों मुख्यधारा में लाने को
पलभर में नकार दिया
क्यों मुख्यधारा में लाने को
हमें काट दिया.....
विकास उन्नति के लिये
हमारी ही बलि क्यों..?
क्या तुम नही जानते..?
सालों लगते हैं हमें सघन होने में,
यूँ ही एक दिन में बड़े नहीं हो जाते है.!!
विकास उन्नति के लिये
हमारी ही बलि क्यों..?
क्या तुम नही जानते..?
सालों लगते हैं हमें सघन होने में,
यूँ ही एक दिन में बड़े नहीं हो जाते है.!!
सिर्फ़ एक पेड़ नहीं हम
तुम्हारे अंदर की श्वास-गति है..!!
काट जो रहे हो विकास के नाम पर,
साँसों को अपनी ख़ुद बंधक बना रहे हो
आहह....!!!
लो मुझे भी काट दिया..!
अपने ही जल ,जंगल ज़मीन से
अलग किया..!
पर याद रखना विकास के नाम पर
हमारी जड़ों को उखाड़ फेंकने वालो....
साँसों को जब तरसोगे एक दिन
रुदन हमारा याद आएगा..!
( कुछ दिनों पहले मुंबई में मेट्रो सेड के लिए रातों-रात काटे गए ,आरे के जंगल , जहां कई हजारों पेड़ों को रात्रि के मध्य समय में काट दिया गया उसी घटना से प्रेरित होकर ये रचना लिखी मैंने)
तुम्हारे अंदर की श्वास-गति है..!!
काट जो रहे हो विकास के नाम पर,
साँसों को अपनी ख़ुद बंधक बना रहे हो
आहह....!!!
लो मुझे भी काट दिया..!
अपने ही जल ,जंगल ज़मीन से
अलग किया..!
पर याद रखना विकास के नाम पर
हमारी जड़ों को उखाड़ फेंकने वालो....
साँसों को जब तरसोगे एक दिन
रुदन हमारा याद आएगा..!
( कुछ दिनों पहले मुंबई में मेट्रो सेड के लिए रातों-रात काटे गए ,आरे के जंगल , जहां कई हजारों पेड़ों को रात्रि के मध्य समय में काट दिया गया उसी घटना से प्रेरित होकर ये रचना लिखी मैंने)
#अनीता लागुरी 'अनु'
(चित्र साभार ..google से)
शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019
आ अब लौट चलें...!!
ग़रीबी की चादर ओढ़े
बड़े हुए हैं मित्र...!
ग़रीबी या ग़ुर्बत क्या होती है... ?
शायद तुम न समझ सको..!
वो दिन भी देखे हैं मैंने..!
जब रोटी मांगने पर,
माँ एक बना-बनाया झूठ बोल दिया करती थी..
"अब्बा गये हैं बाज़ार
पूरी-पुवे लेने....!"
रुक ज़रा..... काहे की जल्दी मचा रखी है तुमने
पर वो भी जाने, मैं भी जानूँ ..!
अब्बा दूर कहीं छिपकर...!
हमारे सोने का इंतज़ार किया करते थे
जानते थे आज भी काम नहीं मिलेगा उन्हें,
पावर का चश्मा जो टूट गया था उनका
पर देख आज मेरी क़िस्मत
ये जो हमने पहन रखा है ....!
'रेब्बान' का ब्रांडेड सन-ग्लासेस का चश्मा ...!
इस चश्मे के भीतर देखो
सपने लिये हज़ार बड़े हुए थे हम
चला जाता था बस्ता उठाये...!
स्कूल के दरवाज़े तक..!
पर कभी कहा नहीं अम्मा से
वो अंदर जाने ही नहीं देते थे!
ये जो भरा हुआ है न बटुवा मेरा
सौ-हज़ार के करारे नोटों से
कभी ऐसा भी दिन था मित्र!
मात्र दस रुपये के लिये मैंने
अलस्सुब्ह उठकर
घर-घर जाकर अख़बार भी बाँटे थे मैंने,
आज जहाँ खड़ी की है ना मैंने कार...!
यार मेरे बस वहीं पर मैंने थप्पड़ खाया था एक रोज़ ...!
ग़लती क्या थी मेरी बस इतनी
स्टैंड लगी साइकिल पर चढ़ बैठा
वो दर्द तो यक़ीनन चला गया..!
पर अब भी पड़ोसियों के हँसने का दर्द मेरे कानों को भेदता है
कब तक खड़ा रहेगा...!
ला वो खाट खींच ला..!
मैं पलटी मार नीचे बैठ जाऊँगा
अरे मेरी मत सोच
ज़मीन की पैदाइश हूँ
इस माटी का रंग जानता हूँ मैं
इन कपड़ों का क्या है...!
मैं तो बारहवीं तक निकर पहनकर घूमता-फिरता था...!
कुछ नहीं बदला है यह घर और यह आँगन...!
और ये टूटी चप्पलें वर्षों पुरानी...!
सब मुँह बाये मुझे चिढ़ा रहे हैं
शहर का वो महल मेरा...!
और ये मेरे बचपन का गलियारा..!
क्या बदला?
बस यही बदला ना..!
न अम्मा अब खाँसती हुई दिखती है
और न बापू बड़बड़ाते हुए दिखते हैं...!
चल अब यादों के झरोखे से बाहर निकलते हैं..!
चलो आज उस बेरी के बेर फिर तोड़ता हूँ
उन शहरी सेवों में वो स्वाद कहाँ
जो इस छोटे-से जंगली बेर में है
जो आज भी बच्चों को आसानी से मयस्सर हैं
बस यही था मेरा बचपन
जो मैं तुझे दिखाने ले आया..!
मिट्टी का घर खप्परों की छत
और छत से आती धूप सुनहरी...!
और सोंधी-सी यह माटी की ख़ुशबू
अब रो दूँगा मैं अगर पल को और रुका तो,
चल ड्राइवर को बोल अब
वो गाड़ी निकाले..!
कुछ यादों को दफ़्न करके ही
आगे बढ़ जाना ज़िन्दगी कहलाती है..!
@अनीता लागुरी 'अनु'
रविवार, 20 अक्टूबर 2019
सूरज संग संवाद..!!
हाँ पहली बार देखा था सूरज को
सिसकते हुए...!!
दंभ से भरे लाल गोलाकार वृत्त में
सालों से अकेले खड़े हुए..!!
हमारे कोसे जाने की अवधि में
स्थिर वो सुनता रहा है सब कुछ
उसकी भी संवेदनाएँ ...!
प्रभाव छोड़ती है..!!
जब वो आग के गोलों में तब्दील,
अपनी मारक शक्तियों का प्रयोग करता है
धरती जलती है ..!!
उसके क्रोध के सामने,
पशु ,पक्षी ,इंसान रहम मांगते हैं..!!
जब वो अपने अंदर की आग को,
बाहर उबालकर रख देता है
ऐसा प्रतीत होता है..!!
उसे भी संवाद प्रिय होगा,
सिसकते हुए...!!
दंभ से भरे लाल गोलाकार वृत्त में
सालों से अकेले खड़े हुए..!!
हमारे कोसे जाने की अवधि में
स्थिर वो सुनता रहा है सब कुछ
उसकी भी संवेदनाएँ ...!
प्रभाव छोड़ती है..!!
जब वो आग के गोलों में तब्दील,
अपनी मारक शक्तियों का प्रयोग करता है
धरती जलती है ..!!
उसके क्रोध के सामने,
पशु ,पक्षी ,इंसान रहम मांगते हैं..!!
जब वो अपने अंदर की आग को,
बाहर उबालकर रख देता है
ऐसा प्रतीत होता है..!!
उसे भी संवाद प्रिय होगा,
किसी के सानिध्य को
तरसता..
सदियों से अकेले खड़े होकर जलने की
सजा से व्याकुल..!
वो भी कितना कराहता होगा,
मिन्नतें दरख़्वास्त सारी उसकी
जल गयीं होंगीं ख़ुद की उसकी आग में
सदियों से अकेले खड़े होकर जलने की
सजा से व्याकुल..!
वो भी कितना कराहता होगा,
मिन्नतें दरख़्वास्त सारी उसकी
जल गयीं होंगीं ख़ुद की उसकी आग में
क्या वो अभिशप्त है...?
यों सदियों से अब तक जलते रहना..
उसकी नियति में लिखा भयानक सच है..!
#अनीता लागुरी "अनु"
#अनीता लागुरी "अनु"
शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018
एक दिन शहर ने कहा मुझसे....
एक दिन शहर ने कहा मुझसे
मेरे हिस्से में सुकून कब आएगा..?
समेटे फिरता हूँ सबको ख़ुद में..,
भला मेरे लिए साँसें कौन लेगा...!!
मेरे हिस्से में सुकून कब आएगा..?
समेटे फिरता हूँ सबको ख़ुद में..,
भला मेरे लिए साँसें कौन लेगा...!!
कौन होगा जो दो घड़ी बातें करेगा मुझसे
पूछेगा मुझसे क्या शहर
पूछेगा मुझसे क्या शहर
शहर होने से
तुम थक तो नहीं गये...?
कितनी फैली है ज़मीन तुम्हारी
कितना चलते हैं लोग तुझ पर
तुम थक तो नहीं गये...?
कितनी फैली है ज़मीन तुम्हारी
कितना चलते हैं लोग तुझ पर
रातों को भी नींद नसीब नहीं
लोग आते हैं थककर सुस्ताने तुझ तक
तुम्हारे तो पंख भी नहीं हैं
कि तुम उड़ जाओ सब छोड़कर
लोग आते हैं थककर सुस्ताने तुझ तक
तुम्हारे तो पंख भी नहीं हैं
कि तुम उड़ जाओ सब छोड़कर
मंगलवार, 11 दिसंबर 2018
तुम क्यों नहीं..?
रिश्तों के दरकने का ख़म्याज़ा
सिर्फ़ मैं ही क्यों भुगतूँ
तुम क्यों नहीं..?
सिर्फ़ मैं ही क्यों भुगतूँ
तुम क्यों नहीं..?
सवाल जो उठ आये मुझपर
सभी की
उन सवालों की झड़ी
तुम पर क्यों नहीं..?
उन सवालों की झड़ी
तुम पर क्यों नहीं..?
तुम्हारी नज़रें अभी भी नीचे नहीं हैं
पर मेरी नज़रों का क्या क़ुसूर
तुम्हें वह दर्द दिखता क्यों नहीं...??
पर मेरी नज़रों का क्या क़ुसूर
तुम्हें वह दर्द दिखता क्यों नहीं...??
हालात मैंने बनाये या तुमने
ये सवाल सुई की तरह मुझे चुभते हैं
पर शायद तुम्हें क्यों नहीं..?
ये सवाल सुई की तरह मुझे चुभते हैं
पर शायद तुम्हें क्यों नहीं..?
अपने अहं के साथ तुम जीते रहे
तिल-तिल दर्द के साथ मैं मरती रही
पर मेरे जीने की वजह तुम क्यों नहीं..??
तिल-तिल दर्द के साथ मैं मरती रही
पर मेरे जीने की वजह तुम क्यों नहीं..??
एक मैं ही क्यों वजह बनती रही
तुम्हारी हर दी हुई बात की
पर कमाल है दुनिया की नज़रों में तुम क्यों नहीं..?
तुम्हारी हर दी हुई बात की
पर कमाल है दुनिया की नज़रों में तुम क्यों नहीं..?
तुम मेरे तने को काटते रहे
और मैं अधमरी पेड़ बन
और मैं अधमरी पेड़ बन
चुपचाप ज़ख़्मों को सीती रही।
यह दर्द तुमने कभी सहा ही नहीं..?
यह दर्द तुमने कभी सहा ही नहीं..?
चीख़ना चाहती हूँ इन बंद दरवाज़ों के पीछे
ये स्याह अँधेरे मुझे डराते हैं।
पर तुम इन अँधेरों से डरते क्यों नहीं..?
ये स्याह अँधेरे मुझे डराते हैं।
पर तुम इन अँधेरों से डरते क्यों नहीं..?
#अनीता लागुरी 'अनु'
शनिवार, 1 दिसंबर 2018
आवारा बादल
आवारा बादल,
शोर मचाते,
धोखेबाज बादल,
छत पर आकर,
उछल-कूद करते,
नखरीले बादल,
पास जाकर देखूँ तो,
दूर कहीं छिप जाते बादल,
शोर मचाते,
धोखेबाज बादल,
छत पर आकर,
उछल-कूद करते,
नखरीले बादल,
पास जाकर देखूँ तो,
दूर कहीं छिप जाते बादल,
मनमर्ज़ी करते ,
विशालकाय बादल!
विशालकाय बादल!
@अनीता लागुरी "अनु"
शनिवार, 10 नवंबर 2018
माँ
न जाने कौन से देश तू बसती है
अक्सर तेरी याद रह-रह आती है
समेटने बैठी हूँ तेरी यादों को
पर कागज़ के पन्नों में भी तू नहीं समाती है!
आँख खुली थी गोद में तेरी
पर तू ने दम तोड़ा हाथों में मेरे..!!
मैंने कहा मत जाओ माँ
तूने कहा तेरी शरारत अब सही नहीं जाती,
थक गयी हूँ बिटिया मेरी
अब धूल में लोटने की मेरी बारी,
माँ तू तो चल दी जाने किस देश, शहर में
पर जब भी कसकर जुड़ा बाँधूँ
कड़वे नीम का एहसास आँखों को रुला जाता है मेरे,
चंदा की लोरियाँ सुनाते-सुनाते तू ख़ुद ही चल दी चंदा के घर ,
आ देख शरारत मेरी
सर पर डाल तेरी शादी का जोड़ा,
आँचल को गंदा कर बैठी हूं
चाहती हूँ तू पास आकर मेरे
फिर से लगा दे गालों पे चपत मेरी।
और प्यारी सी झिड़की देकर मुझसे कहे
तुझे कब अक्ल आएगी
@अनीता लागुरी "अनु"
शुक्रवार, 19 जनवरी 2018
यह भी है एक बवाल ...... !
जीवन में चढ़ते-घटते
प्रपंच का बवाल
आज तड़के दर्शन हो गये
फिर से एक बवाल के
चीख़ती नज़र आई
रमा बहू सास के तीखे प्रहार से।
कर अनसुनी क़दम ढोकर
बढ़ गया मैं
सू गली का चौराहा
किचकिच का शोर
इकलौता नल
कहें नो मोर..... ,नो मोर......
यहां भी थी
एक जंग की तैयारी
होने वाली थी
बवाल की मारा-मारी
कौन किसकी सुने
हर नारी थी सब पे भारी।
बढ़ चला फिर आगे मैं
जा बैठा कोने वाली बैंच पर
ले ही रहा था राहत की सांस
उफ़!
यहां भी हो गया प्रेमी जोड़ों में
बवाल...!
सोलहवां सावन
प्यार में डूबा मन
प्रेमी न समझे तो
दिल के टूटने का
बड़ा बवाल ....!
बवाल कहां नहीं है
बस में सीट न मिले तो बवाल
पति पसंद की साड़ी न दिलाए
तो बवाल
बच्चों की न सुनो तो बवाल
पूरी सोसायटी ही बवाल है।
कुछ होते हैं
हाई-प्रोफाइल बवाल
राजनीति की खुली गलियों में
जूतम-पैज़ार का बवाल
होंठों को सिलते
तानाशाह के रुतबे का बवाल
जो अक्सर कर देते हैं
रियाया को हलाल
कुछ मेरे मन में भी
व्याप्त हैं बवाल
इंसान हूँ
बात इंसानियत की करता हूँ
गर बना रहना चाहूँ इंसान
तो करूँ बवाल ?
पर वास्तविकता क्या है
इस बवाल की
ये सारा जीवन-तंत्र ही बवाल है
खो गयी शान्ति मन की
दौड़ रहा हर इंसान यहां
युवा दौड़ लगाए नौकरी की
ग़रीब जुगाड़ करे ज़रुरतों की
वास्तव में ये सबसे बड़ा है सवाल
सही मायने में
यह भी है एक बवाल ...... !
#अनीता लागुरी ( अनु )
शनिवार, 13 जनवरी 2018
जब जला आती हूँ अलाव कहीं...
ये मन
धूं-धूं जलता है
जब ये मन
तन से रिसते
ज़ख़्मों के तरल
ओढ़ के गमों के
अनगिनत घाव
जब जला आती हूँ
अलाव कहीं
धीमी-धीमी आंच पर
सुलगता है ये मन
उन सपनों की मानिंद
जो आँखें यों ही
देखती हैं मेरी
अनगिनत रतजगी
रातों को
ये धूं-धूं जलता
ये मेरा मन
पिघलता है
मोमबत्ती-सा
और यों ही
गर्म हो उठता है
उस अलाव-सा
,
जिसे छोड़ आई
थी कहीं..
उस अकेले चांद संग...!
# अनीता लागुरी (अनु)
मंगलवार, 9 जनवरी 2018
यह मेरी हार है....
(जीवन पथ पर बढ़ते रहने की सीख देता एक भाई..)
रुक जाओ
मत भागो
मैं नहीं थोपूँगा
अपनी पराजय तुम पर
यह मेरी हार है।
मेरे सपनों की
दम तोड़ती
अट्टालिकाओं के
ज़मी-दोज़ होने की हार है।
गर कठघरे में खड़ा होगा कोई
तो वो मैं होऊँगा
सादियों से जलता रहा हूँ मैं
आज भी जलते सूरज का
तीक्ष्ण प्रहार मैं ही झेलूँगा।
मेरे भाई...
कुछ पल ठहर जाओ
सहने को..... मरने को.....
कोई एक ही मरेगा
और वो मैं होऊँगा।
इन बची हुई स्मृतियों से
ढक देना ख़ुद को
और जब
अंत होगा ज़मीं का
दौड़कर चढ़ जाना
पश्चिम की ओर
और वापस आकर
माँ की गोद में
सर रख कर
सांसों को धीमा करना..!
इन स्मृतियों को वहीं कहीं
कूड़ेदान में डालकर चल देना
बस चलते ही जाना
ये मेरी पराजय
मैं नहीं थोपूंगा तुम पर
ये मेरे लिखे शब्दों की हार है
वर्षों से है शापित जीवन मेरा
आज दफ़न भी हो जाए तो क्या ग़म है......?
#अनीता लागुरी (अनु)
सोमवार, 8 जनवरी 2018
उतरन...
दीदी!
क्या गलती थी मेरी
पूछना चाहती हूँ आज
जन्म तुम्हारे बाद हुआ
इसमें मेरा क्या कसूर
क्या गलती थी मेरी
पूछना चाहती हूँ आज
जन्म तुम्हारे बाद हुआ
इसमें मेरा क्या कसूर
बाबा की अँगुली
थामी तुमने
थामी तुमने
तुम्हारी मैंने
हर चीज़ तुम्हारे बाद मिली मुझे
किताबें तुम्हारी
किताबें तुम्हारी
क़लमें तुम्हारी
बस जिल्द नयी लगा दी जाती
बस जिल्द नयी लगा दी जाती
किताबों पर
तुम्हारे कपड़ों
पर बस गोटें नई टांक दी जातीं
झिलमिल वाली
ताकि बालसुलभ मन मेरा
उलझा रहे
रंगीन गोटों की चमक में
खिलौने तुम्हारे
यहां तक कि कभी-कभी
थाली में बची सब्ज़ी
तक तुम डाल दिया करती थी
थाली में बची सब्ज़ी
तक तुम डाल दिया करती थी
उफ़ तक न करती
क्योंकि स्नेह की अटूट डोर थी दिल में
पर क्यों......?
सुहाग को अपने
बांध रही हो
संग मेरे
ये ना कोई पुरानी किताब है
ना कोई गोटे वाली फ्रॉक
ये तो ज़िन्दगी है
दीदी मेरी, यहां भी मिलेगी क्या .....उतरन तुम्हारी...!!!
सजेगी मेरी मांग की लाली
अब तुम्हारे ही सिंदूर से
अपनी शादी का जो जोड़ा
सहेज रखा है तुमने
अब तुम्हारे ही सिंदूर से
अपनी शादी का जो जोड़ा
सहेज रखा है तुमने
उसे पहनकर कैसे बैठूँ
मंडप में संग जीजू के......
मंडप में संग जीजू के......
साथ लिए फेरों का
सात वचनों का
सात वचनों का
सात जन्म का
रिश्ता......
तुम तोड़ के कैसे
मुझे जोड़ चलीं
तुम तोड़ के कैसे
मुझे जोड़ चलीं
मैं कठपुतली नहीं
हाथों की तुम्हारी
तक़दीर अपनी लायी हूँ
तक़दीर अपनी लायी हूँ
माना क़ुदरत ने
रची साज़िशें आपके साथ
घर-आंगन की किलकारी
न दी आपके हक़ में
पर मैं ही क्यों दी....
माना हूँ मैं
छोटी बहना
पर ये उतरन मुझे न देना......!!!
पर ये उतरन मुझे न देना......!!!
# अनीता लागुरी (अनु)
चित्र साभार : गूगल
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
-
आज फिर तुम साथ चले आए घर की दहलीज़ तक..! पर वही सवाल फिर से..! क्यों मुझे दरवाज़े तक छोड़ विलीन हो जाते हो इन अंधेरों मे...
-
कभी चाहा नहीं कि अमरबेल-सी तुमसे लिपट जाऊँ ..!! कभी चाहा नहीं की मेरी शिकायतें रोकेंगी तुम्हें...! चाहे तुम मुझे न पढ...