ग़रीबी की चादर ओढ़े
बड़े हुए हैं मित्र...!
ग़रीबी या ग़ुर्बत क्या होती है... ?
शायद तुम न समझ सको..!
वो दिन भी देखे हैं मैंने..!
जब रोटी मांगने पर,
माँ एक बना-बनाया झूठ बोल दिया करती थी..
"अब्बा गये हैं बाज़ार
पूरी-पुवे लेने....!"
रुक ज़रा..... काहे की जल्दी मचा रखी है तुमने
पर वो भी जाने, मैं भी जानूँ ..!
अब्बा दूर कहीं छिपकर...!
हमारे सोने का इंतज़ार किया करते थे
जानते थे आज भी काम नहीं मिलेगा उन्हें,
पावर का चश्मा जो टूट गया था उनका
पर देख आज मेरी क़िस्मत
ये जो हमने पहन रखा है ....!
'रेब्बान' का ब्रांडेड सन-ग्लासेस का चश्मा ...!
इस चश्मे के भीतर देखो
सपने लिये हज़ार बड़े हुए थे हम
चला जाता था बस्ता उठाये...!
स्कूल के दरवाज़े तक..!
पर कभी कहा नहीं अम्मा से
वो अंदर जाने ही नहीं देते थे!
ये जो भरा हुआ है न बटुवा मेरा
सौ-हज़ार के करारे नोटों से
कभी ऐसा भी दिन था मित्र!
मात्र दस रुपये के लिये मैंने
अलस्सुब्ह उठकर
घर-घर जाकर अख़बार भी बाँटे थे मैंने,
आज जहाँ खड़ी की है ना मैंने कार...!
यार मेरे बस वहीं पर मैंने थप्पड़ खाया था एक रोज़ ...!
ग़लती क्या थी मेरी बस इतनी
स्टैंड लगी साइकिल पर चढ़ बैठा
वो दर्द तो यक़ीनन चला गया..!
पर अब भी पड़ोसियों के हँसने का दर्द मेरे कानों को भेदता है
कब तक खड़ा रहेगा...!
ला वो खाट खींच ला..!
मैं पलटी मार नीचे बैठ जाऊँगा
अरे मेरी मत सोच
ज़मीन की पैदाइश हूँ
इस माटी का रंग जानता हूँ मैं
इन कपड़ों का क्या है...!
मैं तो बारहवीं तक निकर पहनकर घूमता-फिरता था...!
कुछ नहीं बदला है यह घर और यह आँगन...!
और ये टूटी चप्पलें वर्षों पुरानी...!
सब मुँह बाये मुझे चिढ़ा रहे हैं
शहर का वो महल मेरा...!
और ये मेरे बचपन का गलियारा..!
क्या बदला?
बस यही बदला ना..!
न अम्मा अब खाँसती हुई दिखती है
और न बापू बड़बड़ाते हुए दिखते हैं...!
चल अब यादों के झरोखे से बाहर निकलते हैं..!
चलो आज उस बेरी के बेर फिर तोड़ता हूँ
उन शहरी सेवों में वो स्वाद कहाँ
जो इस छोटे-से जंगली बेर में है
जो आज भी बच्चों को आसानी से मयस्सर हैं
बस यही था मेरा बचपन
जो मैं तुझे दिखाने ले आया..!
मिट्टी का घर खप्परों की छत
और छत से आती धूप सुनहरी...!
और सोंधी-सी यह माटी की ख़ुशबू
अब रो दूँगा मैं अगर पल को और रुका तो,
चल ड्राइवर को बोल अब
वो गाड़ी निकाले..!
कुछ यादों को दफ़्न करके ही
आगे बढ़ जाना ज़िन्दगी कहलाती है..!
@अनीता लागुरी 'अनु'