मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

एक अदना-सी मेरी तस्वीर.....!!!

       
          एक ऐसे इंसान की अंतिम पलों  की व्यथा प्रस्तुत कर रही हूँ  जिन्होंने पूरी ज़िन्दगी को ज़िंदादिली  से जीया
पर  दुर्भाग्यवश दिमाग़  में  ख़ून  के थक्के जम जाने के कारण..उन्हें पैरालाइसिस अटैक आया ...और हर वक़्त   देव साहब के गीत गुनगुनाने वाले इंसान की जुबां  अचानक ख़ामोश  हो गई .....पूरे 8 महीने कोमा में  शून्य को ताकते न जाने क्या क्या सोचते रहे ..! 
        ज़्यादातर समय मैं  ही उनके साथ थी।  उनकी तकलीफ़  को मैंने  आँखों  से देखा और महसूस किया  है ..बस उनके अंतिम पलों  के विचारों को शब्दों का रुप दिया है मैंने ....

बाबा मेरे
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बग़ल  वाले कोने के  कमरे से

अक्सर  उनकी दबी-घुटी 
धीमी-सी आवाज़  आती थी...
बिटिया...!!
ओ री बिटिया ...।
थमा  दे ना वो दवा की पुड़िया।
और एक गिलास पानी का,
शायद ऐसा ही वो मुझसे कहना चाहते थे।
याद हैं  मुझे उनके वो
अंतिम पल...!
जब असहाय  बे-बस मुझे
घूरा करते थे
पानी ,दवा, भोजन 
सबके लिए मुहताज.....!
अपने लिए हर मौके की
तलाश किया करते थे.... 
अक्सर आँखों  की भाषा

समझ जाते...!
और इशारों  से कहते
ना ....री ..बिटिया
अब नहीं करूँगा  परेशान तुम्हें
अंतिम पलों  में  साथ रहो मेरे
दिल धक से कर जाता था मेरा... 
उनकी आख़िरी क्षणों  की
सोच यादों से निकालकर
शब्दों मे बंया कर रही  हूँ ....।
ये कैसा जीवन है,
धत्त !
जीवन भर पैसे-पैसे की दौड़ लगाई
रिश्ते-नाते तमाम उम्र
उलझा रहा इसी झंझावात में 
आज मर रहा हूँ  ...   अकेला ! 
कोई नहीं साथ मेरे....!
जहां तक नज़रें जाती हैं 
मुर्दनी-सी  ख़ामोशी  दिखती है
मटमैली चादर, बिखरे बाल
दवाओं और दुआओं से भरा मेरा ये कमरा....
सामने पड़ा महीनों पहले का
पुराना ये अख़बार 
अपनी ही तरह
मुझे चिड़ा रहा है...
और कभी-कभी ....
अचानक बज पड़ता वो
पुराना रेडियो
सोना चाहता हूँ  लंबी नींद ....
अब नहीं  लगती ज़िन्दगी आसान...
ओ बिटिया....! 
कर देना इतना-सा काम....!
टांग देना कोठरी में ...
एक अदना-सी मेरी तस्वीर.....!!!
# अनीता लागुरी (अनु )

6 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,

    आपकी लिखी रचना गुरुवार २५ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  2. मार्मिक रचना,बहुत ही सुन्दर सिमटती जिंदगी का एहसास करती प्रेम के अमिट लम्हों को संवारती
    सादर

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  3. वृद्धावस्था और बीमारी से लाचार मन की व्यथा का बहुत ही हृदयस्पर्शी शब्दचित्रण.....रचना सीधे दिल को छूती है...बहुत ही लाजवाब....।

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  4. जहां तक नज़रें जाती हैं
    मुर्दनी-सी ख़ामोशी दिखती है
    मटमैली चादर, बिखरे बाल
    दवाओं और दुआओं से भरा मेरा ये कमरा....
    सामने पड़ा महीनों पहले का
    पुराना ये अख़बार
    अपनी ही तरह
    मुझे चिड़ा रहा है...
    और कभी-कभी ....
    अचानक बज पड़ता वो
    पुराना रेडियो
    सोना चाहता हूँ लंबी नींद ....
    अब नहीं लगती ज़िन्दगी आसान...
    ओ बिटिया....!
    आँखों में पानी आ गये। इंसानी ज़ज़्बातों की इस गहराई में विरले ही जा पाते हैं, और आपने उन गहराइयों में डूबकर काव्य लिखा है। समझ नहीं आ रहा कि ऐसी परिस्थिति में आपको साधुवाद कैसे करूँ, मगर आपके लेखन का कौशल निश्चित रूप से प्रार्थनीय है। आदर सहित नमन मैम।

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  5. बहुत मर्मस्पर्शी । कितना मुश्किल होता है पिता को इस हालत में देखना ।

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