संवेदनाओं को तिलांजलि देता
अमानवीय मूल्यों का गठजोड़
इंसानों को नरभक्षी बनाता
है ये कैसा कलयुग घनघोर
विकट विह्वल परिस्थितियों में
निर्मित हुए भंवर नादियों में
स्वंय को घेरता
फिर अभिमन्यु-सा चक्र घुमाता
घूमे चारों ओर...!
ख़ुद ही स्वार्थ को रचता
ख़ुद ही मकड़जाल में फंसता
अपने गले के लिए फंदा बनाता...!
क्यों ये मूर्ख बनता हर रोज़ ..?
क्या यह भी है
किसी व्यवस्था का ठौर
देखो कभी शहरों के बीच
कचरे के ढ़ेरों में
बजबजाता मक्खियों का शोर
और चंद फ़ासलों में पड़े
नौनिहालों के अधभरे बोर
जो ढूँढ़ते हैं अपने सपनों के छोर
न बनाओ ऐसी परिस्थितियां
की रक्त से सिंचित पूँजियां
न जाने कब बह जाए
कचरे नाले की ओर
ये चिंताएं करे हरपल
दिमाग़ में शोर
हर रात सड़कों पर नंगी होती
लुटती-पिटती मासूम आबरुएं
न जाने कितने दरिंदे
बिखरे चारों ओर.............!
जो न देखें आयु
किसकी कितनी ओर
वहीं दूसरी ओर...
सड़कों पर फेंक दी जाती
मासूम नवजातों की जीवित देह
यह तिलांजलि मानवीयता की नहीं
तो और क्या है..?
चहुँओर त्राहि माम-त्राहि माम मचा है
कुछ ज़्यादा तो कोई कुछ कम मरा है
संवेदनाओं की शूली पर
हर एक भारतीय परिवार खड़ा है
किसका कसूर......?
कैसा कसूर...?
सवाल अनुत्तरित
जवाब अदृश्य
कौन बताए ...क्या है चहुँओर
घिसटती-पिटती ज़िन्दगी की डोर
डर कर साँसें लेता
घुटता पल-पल
हे मानव रोक ले....!
ख़ुद को तू ..…..
मत बन दानव...
याद रख तू !
हम सब एक हैं
न तू हिन्दू
न मैं मुसलमां
स्वार्थ की वेदी पर
ख़ुद ही न बन जाए अस्तित्वहीन तू..!
बचा ले अपनी संवेदनशीलता
जगा ले सोई मानवता
ये ज़िन्दगी बस एक ही काफ़ी है
कर सको तो इतना कर जाना..
अपने हिस्से की मुस्कान ...
बांट जाना...!
# अनीता लागुरी ( अनु )