गुरुवार, 29 मार्च 2018

भ्रम के सिक्के

आज फिर वो एक
भ्रम को पाले उठेगा
उठा के गमछा,कुदाल
पी के सत्तु का घोल
चल देगा सड़क की ओर
और‌ लगेगा ताकने,
उस ओर , जहां आते हैं
लोग मज़दूरों को चुनने,
शायद उसकी,
बेबसी पसंद आ जाए किसी को,
और ले चले उसे,
कंक्रीट के शहरों में,
जोतने उसका खेत,
और शाम ढले उसे मिलते हैं ,
कुछ सिक्को में समाए हुए
उसके भ्रम,
ओढ़कर  अपनी पसलियों को
एक मरी मुस्कान के साथ
थमा   वो चंद सिक्के,
अपनी बीवी  की हथेलियों में
और‌ कहता है,
ले के आ जुगाड़,
वो भी दौड़ पड़ती  है,
उठा के थैला,
भ्रम के चंद सपने खरीदने,
ये कहानी है,
एक आम मज़दूर की,
व्यवस्था के ढ़ेर पर
बैठे परिवर्तन की प्रतीछा करते,
दिग्भ्रमित सपनों की,
जिन्हें सिर्फ़  आता है,
अनाज के चंद दाने उगाना
वरना गमछे में ही,
उन्हें जीवन  का सारा सच
निचोड़ना आता है।
  #अनीता लागुरी (अनु)

शुक्रवार, 9 मार्च 2018

मेरे शब्दों की ..मुखरता।।

मैं एक अदना सा लेखक हुं,
लिखता वहीं हुं जो
मन को बींध जाता है,
स्पष्ट, अस्पष्ट की संज्ञा
से परे
मन के विस्मृत भावों
को संवेदनाओं से
उकेरता चला जाता हुं
मन के कोरे कागज में
जब दर्द की चीख
निकलती है
और धुटन से जिह्वा
बाहर आती हैं
तब आत्मा शोर मचाती है
और मैं एक अदना सा लेखक
लिख डालता हूं
खुद की आत्मसंतुष्टि के लिए
भाव आविभाव की
पोथी लेकर।
तत्पर...ये नहीं सोचता कि
प्रभाव क्या है इसका
क्या तुम समझोगे,
रखोगे राय क्या अपनी
बस लिखता चला  जाता हूं,
अपनी कलम को,
अपनी पराजय की हार में
डुबा ,
जीत में बदलने की कोशिश में
इतिहास लिखने बैठ जाता हूं।

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

कश्मकश ...!

हर शाख़ पर उल्लू बैठा है

हर शख़्स  यहां कीचड़ से मैला है
क्या रंग क्या गुलाल खेलूं
हर चमन में शातिर शागिर्द बैठा है

तुम बात करते हो मकानों की

यहां हर घर बेज़ुबानों से दहला है
पंख लगाकर क्या उड़े चिड़िया
हर सैय्यद  पंख कतरने   बैठा है

जिस्म में थरथराहट मौजूद भी है

मेरे हाथों में कांपते मेरे सपने भी हैं ...!
कुछ कहने को उतावला  मेरा मन भी है
हाँ  वो गोले आग के,मेरे अंदर भी हैं ।
# अनीता लागुरी (अनु)