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सोमवार, 13 नवंबर 2017

तुम कवि हो...पर मै.......!

तुम कवि हो ना,

शब्दों  को आकार


देते हो,


मैं  एक कड़वा  सच  हूँ 

सच को नंगा करना 


मेरी  आत्मसंतुष्टि  है ।


तुम्हारे  विचारों के प्रबल वेग का 

कोई छोर नहीं ।

और मैं ...... गंतव्य का भटका राही,


तलाश-ए- मंज़िल  की दौड़ में 


गुमनाम बना फिरता हूँ ...


तुम्हारी  कल्पनाऐं 

अंतहीन हैं ।


मैं  दर्द को सीता हूँ ...!


उसकी चुभन से ,


ख़ुद की कहानियां


लिखता हूँ .…!


तुम लेते हो सहारा क़लम  का

मेरी तो आँखें  पनीली होती हैं ,


होगे तुम कवि कहीं के


मैं  बस मैं  हूँ .......!


कल्पनाओं से परे...!


जीता हूँ  संग  बिडम्बनाओं  के

मरता हूँ  संग वर्तमान के...!


एक यथार्थवादी....!

#अनु