बस्तियां- दर- बस्तियां
हुईं ख़ामोश ,
ये फ़ज़ाओं में कोन-सा
ज़हर घुल गया..!!
जहां तक जाती हैं
नज़रें मेरी..!
वहां तक लाशों का
शहर बस गया..!!
इन सांसों में कैसी,
घुटन है छाई,
मौत से वाबस्ता
हर बार कर गया...!!
ये कैसी ज़िद है,
तुम्हारी
ये कैसा जुनून है
तुम्हारा..!
कि मुकद्दर में मेरे
सौ ज़ख़्म लिख गया..!!!
तुम भी इंसां हो
मैं भी इंसां हूँ ,
फिर भला मेरी मौत
तुम्हें है...क्यों प्यारी....??
कभी देखा है?
मासूम हाथों में..!!
बहते लाल रंग को!!
जिह्वा निकल रही ,
उबलती आंखों को,
कतारों में
लेटी अनगिनत लाशों को,
कफ़न भी मयय्सर न
होने वाले मंज़र को...!!
वो ऊपर बैठा
हुईं ख़ामोश ,
ये फ़ज़ाओं में कोन-सा
ज़हर घुल गया..!!
जहां तक जाती हैं
नज़रें मेरी..!
वहां तक लाशों का
शहर बस गया..!!
इन सांसों में कैसी,
घुटन है छाई,
मौत से वाबस्ता
हर बार कर गया...!!
ये कैसी ज़िद है,
तुम्हारी
ये कैसा जुनून है
तुम्हारा..!
कि मुकद्दर में मेरे
सौ ज़ख़्म लिख गया..!!!
तुम भी इंसां हो
मैं भी इंसां हूँ ,
फिर भला मेरी मौत
तुम्हें है...क्यों प्यारी....??
कभी देखा है?
मासूम हाथों में..!!
बहते लाल रंग को!!
जिह्वा निकल रही ,
उबलती आंखों को,
कतारों में
लेटी अनगिनत लाशों को,
कफ़न भी मयय्सर न
होने वाले मंज़र को...!!
वो ऊपर बैठा
वो भी यही सोच रहा होगा
कब इंसानो को मैंने
राक्षस बना दिया..!!!
कब इंसानो को मैंने
राक्षस बना दिया..!!!
#अनीता लागुरी(अनु)