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शनिवार, 13 जनवरी 2018

जब जला आती हूँ अलाव कहीं...



ये मन

धूं-धूं जलता है 

जब ये मन

तन से रिसते 

ज़ख़्मों के तरल

ओढ़ के गमों के

अनगिनत घाव 

जब जला आती हूँ 

अलाव कहीं

धीमी-धीमी आंच पर

सुलगता है ये मन

उन सपनों की मानिंद

जो आँखें यों  ही

देखती हैं  मेरी

अनगिनत रतजगी

रातों को

ये धूं-धूं  जलता 

ये मेरा मन

पिघलता है 

मोमबत्ती-सा

और यों  ही

गर्म हो उठता है

उस अलाव-सा
,
जिसे छोड़ आई 

थी कहीं..

उस अकेले चांद संग...!



# अनीता लागुरी (अनु)

बुधवार, 8 नवंबर 2017

मुझसे दूर तो कभी नहीं जाओगे ना--------------!!!!!!




आज फिर तुम साथ चले आए

घर की दहलीज़  तक..!
पर वही सवाल फिर से..!
क्यों मुझे दरवाज़े तक छोड़
विलीन हो जाते हो इन अंधेरों में..?
क्यों नहीं लांघते  इन  दहलीज़ों को..?
जानती हूँ  तुम्हें पता है ना
मेरा वो अंधेरों से  डर...!

अब भी याद आता है मुझे

तुम्हारा वह मेरा हाथ थाम लेना..!

जब अचानक रोशनी
गुम हो जाती थी..!
और मैं चिहुंक कर
तुम्हारे सीने से लग जाती थी
और महसूस करती थी 

तुम्हारी बाहों का वह मज़बूत घेरा 

जो मुझसे कहता था 

अनु मैं हूँ  ना...!!!!
और मैं सिमटी सहमी
पूछती तुमसे...!!!
मुझसे दूर कभी नहीं जाओगे ना....???
और तुम मुस्कुरा देते.... 
अपने  वही चिर-परिचित अंदाज़  में
और कहते मुझसे नहीं पगली!
 धत्त...!!!!!!!
मैं भी ना....!!!
 कहाँ खो जाती हूँ 
और अब मैं अंधेरों में
मोमबत्ती तलाशती 

तुम्हारी तस्वीर को

अपलक खड़ी देखती रह रही हूँ..!

धीरे-धीरे तुम्हारी छवि
धूमिल होने लगी है..!
पर तुम्हारी यादें  नहीं..!
जानती हूँ  तुम साथ नहीं हो 

पर जब भी ये घने अंधेरों के साए 
मुझे डराएंगे...!

तुम उस वक़्त मेरे साथ रहोगे...!

मेरी परछाई बनकर......!
 🍁🌺#अनु