मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

तुम क्यों नहीं..?

रिश्तों के दरकने का ख़म्याज़ा 
सिर्फ़  मैं ही क्यों भुगतूँ
तुम क्यों नहीं..?
सवाल जो उठ आये मुझपर 
सभी की
उन सवालों की झड़ी
तुम पर क्यों नहीं..?
तुम्हारी नज़रें अभी भी नीचे नहीं हैं
पर मेरी नज़रों का क्या क़ुसूर
तुम्हें वह दर्द दिखता क्यों नहीं...??
हालात मैंने बनाये या तुमने
ये सवाल सुई की तरह मुझे चुभते हैं
पर शायद तुम्हें क्यों नहीं..?
अपने अहं के साथ तुम जीते रहे
तिल-तिल दर्द के साथ मैं मरती रही
पर मेरे जीने की वजह तुम क्यों नहीं..??
एक मैं ही क्यों वजह बनती रही
तुम्हारी हर दी हुई बात की
पर कमाल है दुनिया की नज़रों में तुम क्यों नहीं..?
तुम मेरे तने को काटते रहे
और मैं अधमरी पेड़ बन 
चुपचाप ज़ख़्मों को सीती रही।
यह दर्द तुमने कभी सहा ही नहीं..?
चीख़ना चाहती हूँ इन बंद दरवाज़ों के पीछे
ये स्याह अँधेरे मुझे डराते हैं।
पर तुम इन अँधेरों से डरते क्यों नहीं..?


#अनीता लागुरी 'अनु'

4 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,


    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-10-2019) को (चर्चा अंक- 3495) "आय गयो कम्बखत, नासपीटा, मरभुक्खा, भोजन-भट्ट!" पर भी होगी।
    ---
    रवीन्द्र सिंह यादव

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    उत्तर
    1. सुप्रभात रविंद्र जी चर्चा मंच में मुझे शामिल करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद

      हटाएं
  2. हालात मैंने बनाये या तुमने
    ये सवाल सुई की तरह मुझे चुभते हैं
    पर शायद तुम्हें क्यों नहीं..?
    अपने अहं के साथ तुम जीते रहे
    तिल-तिल दर्द के साथ मैं मरती रही..
    अनु जी की रचना की इन भावपूर्ण पंक्तियों में अनेक प्रश्न हैं।
    परंतु यदि हम इस रचना पर आत्मचिंतन करें तो इस प्रश्न का एक ही उत्तर होगा कि इस लौकिक जगत में हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखें, क्यों कि चहुँओर स्वार्थ भरा अनुबंध है या फिर सारे रिश्ते कच्चे धागे जैसा डोर है। सादर..
    प्रणाम।

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  3. जी बहुत-बहुत धन्यवाद व्याकुल पथिक जी.. प्रश्न तो संपूर्ण जीवन का रह गया मानती हूं कि अलौकिक जगत में अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना पड़ता है ...पर एक स्त्री के अंदर उठती हल चले कभी-कभी उसे भावनाओं से बाहर लाकर दुनिया के समक्ष कटघरे में खड़े कर देते हैं. उस वक्त वह सोचती है अपने हालात अपने जीवन पर बस इसी तामझाम को लेकर मैंने यह रचना लिख डाली पर आपके विचार जानकर बहुत प्रसन्नता हुई साथ बनाए रखिएगा...!!
    सादर.
    .

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