शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

एक दिन शहर ने कहा मुझसे....


एक दिन शहर ने कहा मुझसे
मेरे हिस्से में सुकून कब आएगा..?
समेटे फिरता हूँ सबको ख़ुद में..,
भला मेरे लिए साँसें कौन लेगा...!!
कौन होगा जो दो घड़ी बातें करेगा मुझसे
पूछेगा मुझसे क्या शहर 
शहर होने से
तुम थक तो नहीं गये...?
कितनी फैली है ज़मीन तुम्हारी
कितना चलते हैं लोग तुझ पर
रातों को भी नींद नसीब नहीं
लोग आते हैं थककर सुस्ताने तुझ तक
तुम्हारे तो पंख भी नहीं हैं
कि तुम उड़ जाओ सब छोड़कर
फैला लो हाथों को जितना भी तुम
लोग तुझमें  सिमट ही आयेंगे..
यह शहर शहर का खेल है
लौटकर कहाँ तुम जाओगे?
  @अनीता लागुरी "अनु"

5 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,


    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (07-10-2019) को " सनकी मंत्री " (चर्चा अंक- 3481) पर भी होगी।


    ---

    रवीन्द्र सिंह यादव

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    उत्तर
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद चर्चामंच में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए क्षमा चाहूंगी कि आजकल मैं ब्लॉक पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पा रही हूं, पर आप सबों के निमंत्रण ने फिर से मेरे मन में उत्साह वर्धन कर दिया... खुद की रचना को यहां देखना मेरे लिए बहुत गर्व की बात है

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  2. अद्भुत भाव!
    पीड़ा तो हर एक को है ज़माने में
    क्या शहर बेजुबान है तो महसूस भी नहीं करता ।
    वाह्ह्ह्।

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  3. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद इतनी मधुरतम प्रतिक्रिया के लिए बहुत सही कहा आपने शहर बेजुबान नहीं होता उसकी भी पीड़ा है जो वो समझ सकता है..... धन्यवाद आपका

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  4. बहुत-बहुत धन्यवाद चर्चामंच में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए क्षमा चाहूंगी कि आजकल मैं ब्लॉक पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पा रही हूं, पर आप सबों के निमंत्रण ने फिर से मेरे मन में उत्साह वर्धन कर दिया... खुद की रचना को यहां देखना मेरे लिए बहुत गर्व की बात है

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