ये मन
धूं-धूं जलता है
जब ये मन
तन से रिसते
ज़ख़्मों के तरल
ओढ़ के गमों के
अनगिनत घाव
जब जला आती हूँ
अलाव कहीं
धीमी-धीमी आंच पर
सुलगता है ये मन
उन सपनों की मानिंद
जो आँखें यों ही
देखती हैं मेरी
अनगिनत रतजगी
रातों को
ये धूं-धूं जलता
ये मेरा मन
पिघलता है
मोमबत्ती-सा
और यों ही
गर्म हो उठता है
उस अलाव-सा
,
जिसे छोड़ आई
थी कहीं..
उस अकेले चांद संग...!
# अनीता लागुरी (अनु)
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (07-01-2020) को "साथी कभी साथ ना छूटे" (चर्चा अंक-3573) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'