चित्र: गूगल से
बसंत...!
🍁🍂🍁
परिवर्तन का दौर फिर आया है
प्रकृति में यौवन चढ़ आया है
लहलहाते सरसों के पीले फूलों के बीच
देखो! बसंत फिर से खिलखिलाया है
बाग़ों में आम की डालियाँ झुक गयीं
मंजरियाँ लकदक शृंगार सजा गयीं
यों लगा ज्यों नवयौवना
पैरों में महावर लगाकर पिया मिलन को निकल गयी
चितेरा कागा सुनाये बेसुरा आलाप
कोयल पपीहा बुलबुल लगाये उसे डाँट
फूलों के गुच्छे में सहेजकर ख़त
पाहुन का संदेशा लेकर आये बसंत
जंगलों और खेतों में देख हरियाली
भंवरे गुंजन करते डाली- डाली
मधुमास के गीत सुनाती
कोयल भी कुहू-कुहू की तान जगाती
छोड़कर पतझड़ का रूखापन
धरती ओढ़े नया शगुन
नाच रही है वसुंधरा
देखकर बसंत की हँसी-ठिठोली.
उन्मादी माहौल सजा-संवरा है
कलियों संग मिलने से डरता भँवरा है
नियति-चक्र चलता रहने वाला है
मानव के सोये विवेक को बसंत जगाने वाला है.
🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁🍂
अनीता लागुरी"अनु"