शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

रक्त पिपासा

रक्त-पिपासा

सुलग रहा मानवीय मूल्यों का गठजोड़
लो पैदा हो रहे हैं रक्तबीजों-से
रक्त-पिपासायुक्त मानव चारों ओर

कर लो संरचना पूरी पृथ्वी की
हर देश दहलीज़ पर बैठा है
रक्त-पिपासायुक्त मानव चारों ओर

परिवर्तन ने रचा ऐसा खेल
सुंदर सुकोमल मन में बस गया
दुनियाभर का बैर
करना नहीं चाहता वह तांडव
पर घर कर जाता है
मन-मस्तिष्क में उसके जब
ईर्ष्या और क्रोध का कीड़ा कुलबुलाता है

वो देखो बैठा है रक्त-पिपासायुक्त मानव चारों ओर
जो रक्त की तेज़ धार देखकर
मन ही मन में शैतानी हँसी  हँसता है
और अपने ही भ्रमजाल में खुद को लपेटे सोचता है
इंसान नहीं दानव बन रहा हूँ

एक व्यक्ति का रक्त नहीं रक्त की नदियाँ बहाने को तैयार हूँ
इस बदलते दौर में
मनुष्य होने के लिये शर्मिंदा हूँ

ऐसा नहीं है कि अंतरात्मा  रोती नहीं है मेरी
सुबकता हूँ गर्भ में पड़े शिशु की तरह
और कलेंडर की तारीख़ों में ढ़ूँढ़ता हूँ वह दिन
जब संवेदनाओं की प्रथम बार तिलांजलि दी थी मैंने
सुकोमल मन में औज़ारों की हरकत हुई थी

किस पर दोषारोपण करुँ?  किस पर फोड़ूँ ठीकरा
जल से बुझती नहीं अब प्यास
मैं मानव न जाने कब परिवर्तित हो गया
सारस से बदलकर गिद्ध हो गया
तुम्हारे आक्रमण से पहले
तुम्हारे रक्त को बहाने को तैयार हो गया!!!
🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁

11 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (१८ -०१ -२०२०) को "शब्द-सृजन"- 4 (चर्चा अंक -३५८४) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    -अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  2. एक व्यक्ति का रक्त नहीं रक्त की नदियाँ बहाने को तैयार हूँ
    इस बदलते दौर में
    मनुष्य होने के लिये शर्मिंदा हूँ
    बहुत सुंदर और सटीक रचना 👌👌👌

    जवाब देंहटाएं

  3. जय मां हाटेशवरी.......

    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    19/01/2020 रविवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......

    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    http s://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  4. मानव के भीतर छिपे दानव की रक्त-पिपासा को अभिव्यक्ति भाव गाम्भीर्य और अर्थ गाम्भीर्य से ओतप्रोत है. दुनिया में हिंसात्मक विचार के पनपने का इतिहास बहुत पुराना है किंतु सभ्यता के विकास के साथ मानव विवेक जाग्रत हुआ तो मानवतावादी विचार की प्रधानता स्थापित हुई.
    चिंतनीय रचना के लिये बधाई एवं शुभकामनाएँ.
    लिखते रहिए.

    जवाब देंहटाएं
  5. ऐसा नहीं है कि अंतरात्मा रोती नहीं है मेरी
    सुबकता हूँ गर्भ में पड़े शिशु की तरह
    और कलेंडर की तारीख़ों में ढ़ूँढ़ता हूँ वह दिन
    जब संवेदनाओं की प्रथम बार तिलांजलि दी थी मैंने
    सुकोमल मन में औज़ारों की हरकत हुई थी
    चाहे कितनी भी शैतानियत आ जाये रकतपिपखसा बढ़ जाय पर हाँ कभी न कभी अन्तरात्मा में ऐसे प्रश्न अवश्य उठते होंगे
    बहुत सुन्दर सार्थक सृजन
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत शानदार प्रस्तुति अनु मन का बहता लावा जो फटने को तैयार हैं , बहुत बहुत सुंदर वर्णन खत्म होती मानवीय संवेदनाओं का ।
    अनुपम।

    जवाब देंहटाएं
  7. इस बदलते दौर में
    मनुष्य होने के लिये शर्मिंदा हूँ
    ....हर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है

    जवाब देंहटाएं
  8. अब क्या कहूँ? मानव होने पर वास्तव में ही आज शर्म सी आती है। मानवता का निरंतर घटता स्तर आज चिंताजनक है। मन का विकार विष सा समाज में फैल रहा और अफ़सोस कि इसका तोड़ नही मिल रहा।
    खैर....आपकी इन सटीक पंक्तियों और शानदार प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर प्रणाम 🙏

    जवाब देंहटाएं

रचना पर अपनी प्रतिक्रिया के ज़रिये अपने विचार व्यक्त करने के लिये अपनी टिप्पणी लिखिए।