मंगलवार, 14 जनवरी 2020

थक जाएंगे एक दिन तुम्हारे जुल्म

कब तक दबाओगे चीख़ों को
कब तक दफ़्न करोगे हमें तुम
हर बार उठ खड़े होंगे
चाहे मारकर हमें फेंको तुम


तेरे क़त्ल-ए-आम से
न झुके हैं न झुकेंगे हम
चाहे कर लो
लाख ज़ुल्म-ओ-सितम 


दे दी हमने क़ुर्बानी आज
लहू अपना गिराकर,
तुम एक मारोगे
दस खड़े हो जायेंगे
बाज़ुओं में तुम्हारे

थक जाओगे
ज़ुल्म करते-करते
मगर निशां हमारा 

मिटा न सकोगे

चला लो अपनी लाठियाँ

पूरी ताक़त समेटकर 
कर लो अपनी मंशा का मुज़ाहिरा 
मगर सुन लो तुम भी!
बह चली है हवा इंक़लाब की
तेरे रोके से अब कहाँ रुकनेवाले हैं हम 

बे-शक तुम कर लो अत्याचार
नहा लो हमारे लहू से
तेरी ज़िद है हमें झुकाने की
मगर हमारी भी ज़िद है
तेरी घटिया गंदी चालों को
जमीं-दोज़ करने की

तुम सबने तो दिखा दिया
अपनी मरी हुई आत्मा का घटिया रूप 
इन्तज़ार करो,
जब तेरे ही अपने पूछेंगे तुझसे
तेरी नफ़रतों का सिलसिला कब थमेगा?
जब अपने ही हाथों अपने ही बच्चों को मार डालोगे

पूछता हूँ कुछ तुमसे
यह तालिबानी शासन क्यों
क्या हम आतंकवादी है?

#अनीता लागुरी 'अनु'

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