भावों को शब्दों में अंकित करना और अपना नज़रिया दुनिया के सामने रखना.....अपने लेखन पर दुनिया की प्रतिक्रिया जानना......हाशिये की आवाज़ को केन्द्र में लाना और लोगों को जोड़ना.......आपका स्वागत है अनु की दुनिया में...... Copyright © अनीता लागुरी ( अनु ) All Rights Reserved. Strict No Copy Policy. For Permission contact.
सोमवार, 13 जनवरी 2020
शुक्रवार, 10 जनवरी 2020
जिजीविषा..जीने की इच्छा में उग आते हैं पेड़ पौधे
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जंगल के बीचोबीच,
पत्थरों की ओट में
उग आया था,जामुन का पौधा
और लगा अंकुरित होने
और फिर बढ़ता रहा
बढ़ता रहा...
विपरीत परिस्थितियों के बीच
और एक दिन बड़ा हो गया।
और लगा फल गिराने धप्प से
पर हम मनुष्य क्यों...?
क्यों घबरा जाते है।
टूट जाते हैं , बिखर जाते हैं
जब परिस्थितियां हमारे अनुकूल नहीं होती
क्यों उस जामुन के पौधे की तरह
खुद में #जिजीविषा समाहित किये ,
जीने का प्रयास हम नही करते ,
मनुष्य होना आसान नहीं..?
🌿🍁🍂🍁🍂🍁🍂
अनीता लागुरी "अनु"
मंगलवार, 7 जनवरी 2020
चीखें...
....….........
एक बस्ती में
एक चीख उभरी थी,
श्रेणी थी डर...
उसी बस्ती में दोबारा
दो तीन चीखें और उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी निराशा और हताशा
कुछ दिनों बाद
कुछ बड़े समूहों की चीखें उभरी
अबकी उसकी श्रेणी थी एकजुटता
और कुछ समय बाद
कुछ और चीखें दहलीजों के बाहर उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी हिम्मत , क्रोध
और अब आजकल
चीखें ही चीखें उभर रहीं हैं,
बिना डरे बिना घबराए
उन चीखों ने जुनून का रूप अख्तियार कर लिया है
हक और हुकूक की बातों के लिए
अपने अस्तित्व और अपने मान सम्मान के लिए
उस बस्ती ने अपनी चीखों को हथियार बना लिया
अब उसकी कोई श्रेणी नहीं
अब उसकी कोई भय नहीं
अब चीखें आदोलन करती है
अब चीखे आवाज कहलाती है
विद्रोह के गीत गुनगुनाती नहीं
मशालें लेकर.. तख्तियाँ पकड़ कर
चीखों को आंदोलनों में तब्दील करती हैं
🍁🍂🍁अनु लागुरी
मंगलवार, 31 दिसंबर 2019
दिसंबर की ठंड
(........ इससे पहले कि ठंड खत्म हो जाए एक कविता ठंड पर मैं भी लिख डालती हूँ)
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जला अलाव सब बैठे हैं
बदन को पूरे कैसे ऐठें हैं
सर पर टोपी हाथ में दस्ताने
गरम चाय को चिल्लाते हैं
सूरज भी कंबल लपेटे
घर के अंदर बैठे हैं
कब जाएगी ठंड ये सारी
दिन गिनते रहते हैं
किट किट किट किट दांत है बजते
नहाने को सभी हमें है कहते
कंबल से बाहर ना निकलूँ मैं
नहाना तो दूर पानी भी ना छू लूँ मैं
छत पर आती है थोड़ी सी धूप
गगनचुंबी इमारतों ने रोक ली हर धूप
गांव का खुला अँगना याद आया
जहां धूप और अलाव के खूब मजे हमने पाया
सता ले लाख दिसंबर की ठंड
मगर प्यारी लगे उतनी ही यह हमें
हर मौसम का है मजा निराला
ओ मम्मी अब दे दो गरम चाय का प्याला
अनु🌥️⛄☃️🌧️🌫️
रविवार, 8 दिसंबर 2019
ढीठ बन नागफनी जी उठी!
चित्र गूगल से साभार
मरुस्थल चीत्कार उठा
प्रसव वेदना से कराह उठा
धूल-धूसरित रेतीली मरूभूमि में
नागफनी का पौधा
ढीठ बन उग उठा
था उसका सफ़र बड़ा कठिन
बादलों ने रहम न दिखाया
न उसे कोई उर्वरक मिला
ज़मीं से नमी का सहारा न मिला
फिर भी ढीठ नागफनी का पौधा
बेशर्म बन उग उठा
चाहा तो उसने भी था
कि कोई भर लेता उसे भी
प्यार से अंकपाश में अपने
और सहलाता सजाता,
केश-लतिकाओं में अपने
मगर वह गुलाब नहीं था
बिडंबना उसकी क़िस्मत की
काँटे थे गुलाब और नागफनी में
मगर स्वीकारा गया गुलाब
और नागफनी!
यों ही अकेली ढीठ बन,
मुस्कुराकर मार्मिक मरुभूमि में
रह गयी बेकल बेचारी
कह गयी नई परिभाषा वह
जिजीविषा के आधार की!
मगर जाग जाती थी कभी-कभी
दबी संवेदना उसकी
वह भी रो लेती थी चुपके से
जब तितली मंडराकर उसके ऊपर से
नज़रें फेरकर निकल जाती
इंतज़ार करती थी शिद्दत से
मगर लोगों की हेय दृष्टि बदल न सकी
तो उसने ख़ुद को ही
रूपांतरित करने का निश्चय किया
बन स्वाभिमानी
नागफनी का पौधा
गरम थपेड़े खाते-खाते
ठंड की मार सहते-सहते
संघर्षों की गाथा लिखता गया
कभी न मुरझाना
कभी निराश न होना
ख़ुद को समझाता गया
अपनी पत्तियों को
काँटों में रूपांतरितकर
देहयष्टि को माँसल बना
सहेजकर जल की बूँदें
ढीठ बन
धारा के विरुद्ध भी जी गया
अगली बरसात तक
पानी बचाकर ग़म पी गया
अरे देखो!
जीवन संगीत का नया राग
इठलाकर सुना गयी!
वह रेगिस्तान में उग आयी थी
जीवन संघर्ष-सी एक रागिनी
मुस्कुरा उठी थी एक नागफनी!
@अनीता लागुरी 'अनु'
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गुरुवार, 5 दिसंबर 2019
स्वप्न में अलाव जलाए..!
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लल्लन हलवाई की दुकान तले
पौ फटे कोई ठिठुर रहा था,
स्वप्न में अलाव जलाये
कोई ख़ुद को मोटे खद्दर में लिपटाये
सो रहा था,
जाग जाता था कभी-कभार
कुत्तों के असमय भौंकने से,
फिर कछुए की भांति सर को निकाल
देख लेता लैंप-पोस्ट की ओर
और मन ही मन गुर्राता
उनकी तरह,
और फिर से सो जाता
बदन को सिकोड़कर
और विचरता फिर से स्वप्न में,
लिए हाथों में कुल्हड़ की चाय,
और सामने पुआल की आग जलाए,
पर हाय री क़िस्मत,
खुलती है आँख तब उसकी
जब मिठाई का टुकड़ा समझ,
चूहे कुतर डालते हैं अँगूठा पैर का
और चीटियाँ चढ़ आती हैं
बदन पर उसके,
तब वह सोचता है उठकर,
इन चीटियों को क्या पता,
इन चूहों को भी क्या पता,
कुतर रहे हैं जिसे वे,
वह कोई गुड़ की डली नहीं,
चिथड़ो में लिपटा
एक पुराना अख़बार है
जिसके पन्नों में अंकित पंक्तियाँ,
समय की मार के साथ धूमिल हो चुकी हैं,
जगह-जगह में बन गये छिद्र,
न जाने कब इस अख़बार के पन्ने को,
हवा के संग उड़ाकर कहीं लेकर
पटक देंगे..।
चलो अब समेटता हूँ अपने बिस्तर को,
अधूरे देखे सपने को
ठंड बाक़ी है अभी
कल फिर ठिठुरुंगा यहीं,
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अनीता लागुरी "अनु"
बुधवार, 4 दिसंबर 2019
मोनालिसा की मुस्कान.!
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आज फिर तुम साथ चले आए घर की दहलीज़ तक..! पर वही सवाल फिर से..! क्यों मुझे दरवाज़े तक छोड़ विलीन हो जाते हो इन अंधेरों मे...
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कभी चाहा नहीं कि अमरबेल-सी तुमसे लिपट जाऊँ ..!! कभी चाहा नहीं की मेरी शिकायतें रोकेंगी तुम्हें...! चाहे तुम मुझे न पढ...