"वाह...! क्या जादू है तुम्हारे हाथों में,
तुम्हारे हाथों से बनी चाय पीकर तो लगता है कि जन्नत के दर्शन हो गये।
सच कहता हूँ सुधा, शादी की पहली सुबह और आज 50 साल बीत जाने के बाद भी तुम्हारे हाथों की बनी चाय में कोई फ़र्क़ नहीं आया।" श्याम जी कहते-कहते मुस्कुरा दिये।
"चलो जी, आपको भी क्या शैतानी सूझ रही है... बिना चीनी की चाय में क्या स्वाद! क्या आप भी मुझे सुबह- सुबह यों ही बना रहे हैं...?"
ऐसा कहकर सुधा बालकनी के बाहर देखने लगी।
जबसे श्यामा जी की मधुमेह की बीमारी के बारे में सुधा को पता चला बस उसके बाद से ही उन्होंने उनकी खाने-पीने की चीज़ों में मीठा डालना कम कर दिया। लेकिन यह उनके बीच रिश्तों की मिठास ही है जो इतने सालों के बाद भी श्यामा जी के चाशनी में डूबे संवाद सुधा को फिर से वही पहले वाली सुधा बना देते हैं जहाँ अतीत के गलियारों में जाकर अपनी ससुराल के पहले दिन बनायी गयी चाय के स्वाद को याद करती हैं जब वो चाय में चीनी मिलाना ही भूल गयी थी पर सब की मुस्कुराहटों ने उसे एहसास नहीं होने दिया कि उसने चाय में चीनी ही नहीं मिलायी!
प्यार करने का तरीक़ा भले ही बदल जाय मगर कुछ रिश्तों में प्यार कभी नहीं बदलता है। ऐसा ही श्यामा जी का प्यार है, वे अपनी जीवनसंगिनी से बहुत प्यार करते हैं। जितना मैं उन्हें जानती हूँ, उनके रिश्ते में प्यार उम्र की मोहताज नहीं।यहाँ जो संवादों की रेलम-पेल मैंने परोसी है! वह मेरे पड़ोस में रहने वाले एक ख़ूबसूरत से बुज़ुर्ग कपल की रोज़ होनेवाली नोंकझोंक की एक झलकी है।
ज़िंदादिली को हर उम्र में जीया जा सकता है बस अपनी धड़कनों के साथ तारतम्य तो बैठाइये।
कल श्यामा जी और सुधा जी सुबह की सैर पर जाते हुए मुझे चिढ़ा रहे थे। दौड़ लगाते हुए मुझे बालकनी में खड़ा देखकर बोले थे-
"हँसते-मुस्कुराते जीना है तो प्रकृति का स्पर्श महसूस करो, आओ हमारे साथ सैर पर चलो।"
मैंने हँसकर हाथ हिलाया और सोचने लगी कि ज़िन्दगी का सफ़र लंबा तो है पर कठिन नहीं।
"कल से प्रकृति के कैनवास पर मैं भी अपनी कूँची से उकेरूँगी अपने मनचाहे रंग उदासियों की मटमैली चादर को उतारकर! मैं भी प्रकृति से संवाद स्थापित करुँगी"- मैं दबी जुबां से बुदबुदायी।
#अनीता लागुरी 'अनु'