शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

अरे पागल !!मन तू क्यूँ घबराए

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नफ़रत किससे क्यों मुझको आज
सुलग रहे दवानल से सवाल
 क्रोध हिंसा की पीड़ा रुलाए
मेरे अंतर्मन में अश्रु कोहराम मचाए
अरे पागल! मन तू क्यों घबराए

तू क्या लाया था जो लेकर जाएगा
मृगतृष्णा की चाह में एक दिन मारा जाएगा
पंच तत्वों से निर्मित ये ढलती काया
अमर तत्व के तेरे विश्वास को झुठलायेगा
अरे पागल! मन तू क्यों घबराए

 मोहपाश की गगरी छोड़
कब ठहरा है हाथों में रेत
चकाचौंध में डूबा यह जीवन
 एक दिन राख में मिल जाएगा
अरे पागल! मन तू क्यों घबराए

जो आया है सो तो जाएगा
अस्थाई यहाँ कौन टिक पाएगा
 भस्मीभूत होकर अस्थियाँ कहलाओगे
अदना-सी तस्वीर समझकर दीवार पर टाँग  दिये जाओगे
अरे पागल! मन तू क्यों घबराए

 हक़ मान बैठा तू जिस पर
मेरा तेरा कहता रहा जीवन भर
यह जग सारा रैन बसेरा है
चिता की लकड़ियों पर ही अंतिम तेरा  सवेरा है
अरे पागल! मन तू क्यों घबराए

यह सत्य एक ऐसा सत्य है
जीवन परिवर्तन का चक्र है
आएँगे-जाएँगे कई किरदार यहाँ
यह तेरा संकल्प धरा रह जाएगा
अरे पागल! मन तू क्यों घबराए.

अनीता लागुरी 'अनु"🍂🍁🍂🍁🍂🍁🍁

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

रक्त पिपासा

रक्त-पिपासा

सुलग रहा मानवीय मूल्यों का गठजोड़
लो पैदा हो रहे हैं रक्तबीजों-से
रक्त-पिपासायुक्त मानव चारों ओर

कर लो संरचना पूरी पृथ्वी की
हर देश दहलीज़ पर बैठा है
रक्त-पिपासायुक्त मानव चारों ओर

परिवर्तन ने रचा ऐसा खेल
सुंदर सुकोमल मन में बस गया
दुनियाभर का बैर
करना नहीं चाहता वह तांडव
पर घर कर जाता है
मन-मस्तिष्क में उसके जब
ईर्ष्या और क्रोध का कीड़ा कुलबुलाता है

वो देखो बैठा है रक्त-पिपासायुक्त मानव चारों ओर
जो रक्त की तेज़ धार देखकर
मन ही मन में शैतानी हँसी  हँसता है
और अपने ही भ्रमजाल में खुद को लपेटे सोचता है
इंसान नहीं दानव बन रहा हूँ

एक व्यक्ति का रक्त नहीं रक्त की नदियाँ बहाने को तैयार हूँ
इस बदलते दौर में
मनुष्य होने के लिये शर्मिंदा हूँ

ऐसा नहीं है कि अंतरात्मा  रोती नहीं है मेरी
सुबकता हूँ गर्भ में पड़े शिशु की तरह
और कलेंडर की तारीख़ों में ढ़ूँढ़ता हूँ वह दिन
जब संवेदनाओं की प्रथम बार तिलांजलि दी थी मैंने
सुकोमल मन में औज़ारों की हरकत हुई थी

किस पर दोषारोपण करुँ?  किस पर फोड़ूँ ठीकरा
जल से बुझती नहीं अब प्यास
मैं मानव न जाने कब परिवर्तित हो गया
सारस से बदलकर गिद्ध हो गया
तुम्हारे आक्रमण से पहले
तुम्हारे रक्त को बहाने को तैयार हो गया!!!
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गुरुवार, 16 जनवरी 2020

उसकी क्या गलती थी..।


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 उसकी क्या गलती थी
उसने तो तिरंगा पकड़ रखा था
आखिरी गोली जब सीने में जा धंसी
 जमीन पर वो चित् पड़ा था

 रह रह कर हलक़ से
कुछ चीखे बेलौस लड़ रही थी
 चेहरे में उभरते दर्द के निशां
 और हाथों में उसके सीने से बहता खून भरा था

 क्या गलती थी उसकी
वो तो बस तिरंगा लिए खड़ा था
भीड़ पर चलाई थी ना जाने किसने गोली
वो  मासूम अब भी जमीन पर चित् पड़ा था

 आज ही पहनी थी उसने कुर्ती  नई
झक सफेद रंग , लाल रंग में सन गया
हाथों में लिपटा तिरंगा खुद ही
उसके बदन पर लिपट गया

ना ना करते करते आखिरकार वह
 सिस्टम के अंधकार में
 गोलियों का शिकार बन
एड़ियाँ रगड़ रगड़ कर आखिरकार मर गया

 क्या अब भी यही पूछोगे
 क्या गलती थी उसकी
 वो तो सिर्फ और सिर्फ
 तिरंगा लिए खड़ा था
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अनु🍂🍁🍂🍁🍁

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

थक जाएंगे एक दिन तुम्हारे जुल्म

कब तक दबाओगे चीख़ों को
कब तक दफ़्न करोगे हमें तुम
हर बार उठ खड़े होंगे
चाहे मारकर हमें फेंको तुम


तेरे क़त्ल-ए-आम से
न झुके हैं न झुकेंगे हम
चाहे कर लो
लाख ज़ुल्म-ओ-सितम 


दे दी हमने क़ुर्बानी आज
लहू अपना गिराकर,
तुम एक मारोगे
दस खड़े हो जायेंगे
बाज़ुओं में तुम्हारे

थक जाओगे
ज़ुल्म करते-करते
मगर निशां हमारा 

मिटा न सकोगे

चला लो अपनी लाठियाँ

पूरी ताक़त समेटकर 
कर लो अपनी मंशा का मुज़ाहिरा 
मगर सुन लो तुम भी!
बह चली है हवा इंक़लाब की
तेरे रोके से अब कहाँ रुकनेवाले हैं हम 

बे-शक तुम कर लो अत्याचार
नहा लो हमारे लहू से
तेरी ज़िद है हमें झुकाने की
मगर हमारी भी ज़िद है
तेरी घटिया गंदी चालों को
जमीं-दोज़ करने की

तुम सबने तो दिखा दिया
अपनी मरी हुई आत्मा का घटिया रूप 
इन्तज़ार करो,
जब तेरे ही अपने पूछेंगे तुझसे
तेरी नफ़रतों का सिलसिला कब थमेगा?
जब अपने ही हाथों अपने ही बच्चों को मार डालोगे

पूछता हूँ कुछ तुमसे
यह तालिबानी शासन क्यों
क्या हम आतंकवादी है?

#अनीता लागुरी 'अनु'

सोमवार, 13 जनवरी 2020

किसने कहा..।

अरे चुप..
क्या आप भी ना...!!
किसने कहा.. मैं रोई हुँ...
बिलकुल नहीं....
ये तो एक बर्फ का शिला है।
जो अंदर कहीं सालों से
रिस्ता आ रहा है..!!
जो अक्सर आँखों में कम
पर दिल की गहराईयों में..
ज्यादा पनीला है..!
                              अन्नू🌺🌺🌺


शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

जिजीविषा..जीने की इच्छा में उग आते हैं पेड़ पौधे


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जंगल के बीचोबीच,
पत्थरों की ओट में
उग आया था,जामुन का पौधा
और लगा अंकुरित होने
और फिर बढ़ता रहा
बढ़ता रहा...
विपरीत परिस्थितियों के बीच
और एक दिन बड़ा हो गया।
और लगा फल गिराने धप्प से
पर हम मनुष्य क्यों...?
क्यों घबरा जाते है।
टूट जाते हैं , बिखर जाते हैं
जब परिस्थितियां हमारे अनुकूल नहीं होती
क्यों उस जामुन के पौधे की तरह
खुद में #जिजीविषा समाहित किये ,
जीने का प्रयास हम नही करते ,
मनुष्य होना आसान नहीं..?
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         अनीता लागुरी "अनु"

मंगलवार, 7 जनवरी 2020

चीखें...

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एक बस्ती में
एक चीख उभरी थी,
श्रेणी थी डर...
उसी बस्ती में दोबारा
दो तीन चीखें और उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी निराशा और हताशा
कुछ दिनों बाद
कुछ बड़े समूहों की चीखें उभरी
अबकी उसकी श्रेणी थी एकजुटता
और कुछ समय बाद
कुछ और चीखें दहलीजों के बाहर उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी हिम्मत , क्रोध
और अब आजकल
चीखें ही चीखें उभर रहीं हैं,
बिना डरे बिना घबराए
उन  चीखों  ने जुनून का रूप अख्तियार कर लिया है
हक और हुकूक की बातों के लिए
अपने अस्तित्व और अपने मान सम्मान के लिए
उस बस्ती ने अपनी चीखों को हथियार बना लिया
अब उसकी कोई श्रेणी नहीं
अब उसकी कोई भय नहीं
अब चीखें आदोलन करती है
अब चीखे  आवाज कहलाती है
विद्रोह के गीत गुनगुनाती नहीं
मशालें लेकर.. तख्तियाँ पकड़ कर
चीखों को आंदोलनों में तब्दील करती हैं
         🍁🍂🍁अनु लागुरी