मंगलवार, 14 जनवरी 2020

थक जाएंगे एक दिन तुम्हारे जुल्म

कब तक दबाओगे चीख़ों को
कब तक दफ़्न करोगे हमें तुम
हर बार उठ खड़े होंगे
चाहे मारकर हमें फेंको तुम


तेरे क़त्ल-ए-आम से
न झुके हैं न झुकेंगे हम
चाहे कर लो
लाख ज़ुल्म-ओ-सितम 


दे दी हमने क़ुर्बानी आज
लहू अपना गिराकर,
तुम एक मारोगे
दस खड़े हो जायेंगे
बाज़ुओं में तुम्हारे

थक जाओगे
ज़ुल्म करते-करते
मगर निशां हमारा 

मिटा न सकोगे

चला लो अपनी लाठियाँ

पूरी ताक़त समेटकर 
कर लो अपनी मंशा का मुज़ाहिरा 
मगर सुन लो तुम भी!
बह चली है हवा इंक़लाब की
तेरे रोके से अब कहाँ रुकनेवाले हैं हम 

बे-शक तुम कर लो अत्याचार
नहा लो हमारे लहू से
तेरी ज़िद है हमें झुकाने की
मगर हमारी भी ज़िद है
तेरी घटिया गंदी चालों को
जमीं-दोज़ करने की

तुम सबने तो दिखा दिया
अपनी मरी हुई आत्मा का घटिया रूप 
इन्तज़ार करो,
जब तेरे ही अपने पूछेंगे तुझसे
तेरी नफ़रतों का सिलसिला कब थमेगा?
जब अपने ही हाथों अपने ही बच्चों को मार डालोगे

पूछता हूँ कुछ तुमसे
यह तालिबानी शासन क्यों
क्या हम आतंकवादी है?

#अनीता लागुरी 'अनु'

सोमवार, 13 जनवरी 2020

किसने कहा..।

अरे चुप..
क्या आप भी ना...!!
किसने कहा.. मैं रोई हुँ...
बिलकुल नहीं....
ये तो एक बर्फ का शिला है।
जो अंदर कहीं सालों से
रिस्ता आ रहा है..!!
जो अक्सर आँखों में कम
पर दिल की गहराईयों में..
ज्यादा पनीला है..!
                              अन्नू🌺🌺🌺


शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

जिजीविषा..जीने की इच्छा में उग आते हैं पेड़ पौधे


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जंगल के बीचोबीच,
पत्थरों की ओट में
उग आया था,जामुन का पौधा
और लगा अंकुरित होने
और फिर बढ़ता रहा
बढ़ता रहा...
विपरीत परिस्थितियों के बीच
और एक दिन बड़ा हो गया।
और लगा फल गिराने धप्प से
पर हम मनुष्य क्यों...?
क्यों घबरा जाते है।
टूट जाते हैं , बिखर जाते हैं
जब परिस्थितियां हमारे अनुकूल नहीं होती
क्यों उस जामुन के पौधे की तरह
खुद में #जिजीविषा समाहित किये ,
जीने का प्रयास हम नही करते ,
मनुष्य होना आसान नहीं..?
🌿🍁🍂🍁🍂🍁🍂
         अनीता लागुरी "अनु"

मंगलवार, 7 जनवरी 2020

चीखें...

....….........
एक बस्ती में
एक चीख उभरी थी,
श्रेणी थी डर...
उसी बस्ती में दोबारा
दो तीन चीखें और उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी निराशा और हताशा
कुछ दिनों बाद
कुछ बड़े समूहों की चीखें उभरी
अबकी उसकी श्रेणी थी एकजुटता
और कुछ समय बाद
कुछ और चीखें दहलीजों के बाहर उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी हिम्मत , क्रोध
और अब आजकल
चीखें ही चीखें उभर रहीं हैं,
बिना डरे बिना घबराए
उन  चीखों  ने जुनून का रूप अख्तियार कर लिया है
हक और हुकूक की बातों के लिए
अपने अस्तित्व और अपने मान सम्मान के लिए
उस बस्ती ने अपनी चीखों को हथियार बना लिया
अब उसकी कोई श्रेणी नहीं
अब उसकी कोई भय नहीं
अब चीखें आदोलन करती है
अब चीखे  आवाज कहलाती है
विद्रोह के गीत गुनगुनाती नहीं
मशालें लेकर.. तख्तियाँ पकड़ कर
चीखों को आंदोलनों में तब्दील करती हैं
         🍁🍂🍁अनु लागुरी

मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

दिसंबर की ठंड

(........ इससे पहले कि ठंड खत्म हो जाए एक कविता ठंड पर मैं भी लिख डालती हूँ)
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जला अलाव सब बैठे हैं
बदन को पूरे कैसे ऐठें हैं
सर पर टोपी हाथ में दस्ताने
गरम चाय को चिल्लाते हैं

सूरज भी कंबल लपेटे
घर के अंदर बैठे हैं
कब जाएगी ठंड ये सारी
दिन गिनते रहते हैं

किट किट किट किट दांत है बजते
नहाने को सभी हमें है कहते
कंबल से बाहर ना निकलूँ मैं
नहाना तो दूर पानी भी ना छू लूँ मैं

छत पर आती है थोड़ी सी धूप
गगनचुंबी इमारतों ने रोक ली हर धूप
गांव का खुला अँगना याद आया
जहां धूप और अलाव के खूब मजे हमने पाया

सता ले लाख दिसंबर की ठं
मगर प्यारी लगे उतनी ही यह हमें
हर मौसम का है मजा निराला
ओ मम्मी अब दे दो गरम चाय का प्याला
    अनु🌥️⛄☃️🌧️🌫️

रविवार, 8 दिसंबर 2019

ढीठ बन नागफनी जी उठी!

 nagfani plant के लिए इमेज परिणाम
चित्र गूगल से साभार


मरुस्थल चीत्कार उठा
प्रसव वेदना से कराह उठा 
धूल-धूसरित रेतीली मरूभूमि में
नागफनी का पौधा
ढीठ बन उग उठा

था उसका सफ़र बड़ा कठिन
बादलों ने रहम दिखाया 
उसे कोई उर्वरक मिला 
ज़मीं से नमी का सहारा न मिला 
फिर भी ढीठ नागफनी का पौधा
बेशर्म बन उग उठा

चाहा तो उसने भी था
कि कोई भर लेता उसे भी
प्यार से अंकपाश में अपने
और सहलाता सजाता
केश-लतिकाओं में अपने
मगर वह गुलाब नहीं था

बिडंबना उसकी क़िस्मत की
काँटे थे गुलाब और नागफनी में 
मगर स्वीकारा गया गुलाब
और नागफनी!
यों ही अकेली ढीठ बन
मुस्कुराकर मार्मिक मरुभूमि में 
रह गयी बेकल बेचारी
कह गयी नई परिभाषा वह 
जिजीविषा के आधार की!
मगर जाग जाती थी कभी-कभी
दबी संवेदना उसकी
वह भी रो लेती थी चुपके से
जब तितली मंडराकर उसके ऊपर से
नज़रें फेरकर निकल जाती 
इंतज़ार करती थी शिद्दत से
मगर लोगों की हेय दृष्टि बदल  सकी

तो उसने ख़ुद को ही 
रूपांतरित करने का निश्चय किया 
बन स्वाभिमानी
नागफनी का पौधा 
गरम थपेड़े खाते-खाते
ठंड की मार सहते-सहते 
संघर्षों की गाथा लिखता गया
कभी  मुरझाना
कभी निराश न होना 
ख़ुद को समझाता गया 
अपनी पत्तियों को 
काँटों में रूपांतरितकर 
देहयष्टि को माँसल बना 
सहेजकर जल की बूँदें 
ढीठ बन
धारा के विरुद्ध भी जी गया
अगली बरसात तक 
पानी बचाकर ग़म पी गया 
अरे देखो!
जीवन संगीत का नया राग 
इठलाकर सुना गयी!
वह रेगिस्तान में उग आयी थी 
जीवन संघर्ष-सी एक रागिनी 
मुस्कुरा उठी थी एक नागफनी!

@अनीता लागुरी 'अनु'

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

स्वप्न में अलाव जलाए..!

चित्र और जानकारी गूगल से
( यह तस्वीर हॉलीवुड के बहुत ही प्रसिद्ध अभिनेता आर्नोल्ड श्वार्जनेगर की है, वह अपने समय के बहुत ही प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और बॉडीबिल्डर रहे हैं, उनके पीछे जो होटल है उसके सामने यह जो सिल्वर  की  विशाल मूर्ति लगी है, ये इनकी खुद की मूर्ति  है, जिन का अनावरण वर्ष 2014 में इन्होंने खुद किया था, परंतु एक समय ऐसा आया जब वक्त और रसूख ने पलटा खाया और वह उसी होटल में गए तब उन्हें वहाँ पर रहने की अनुमति नहीं मिली, और उन्होंने विरोध स्वरूप उसी मूर्ति के नीचे जिन का अनावरण उन्होंने किया था सारी रात ठंड में ठिठुरते हुए बिताई.... इसे कहते हैं वक्त का पलट जाना.. इस घटना से एक यह भी सीख मिलती है कि अपने अच्छे समय में किए गए अच्छे कार्य करें कभी धोखा दे जाते हैं इसलिए हमेशा खुद पर भरोसा बनाए रखें दूसरों पर भरोसा करने की अपेक्षा ...आज जो मैंने कविता लिखी है उसका इस चित्र से या अर्नाल्ड श्वाजनेगर से कोई संबंध नहीं है हां ठंड से ठिठुरते हुए व्यक्ति की जो हालत होती है उसे सोचते हुए मैंने यह जानकारियां साझा की और अपनी कविता नीचे डाली है मैंने)

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लल्लन हलवाई की दुकान तले

पौ फटे कोई ठिठुर रहा था,

  स्वप्न में अलाव जलाये

कोई ख़ुद को मोटे खद्दर में लिपटाये

सो रहा था,

जाग जाता था कभी-कभार

कुत्तों के असमय  भौंकने से,

फिर कछुए की भांति सर को निकाल

देख लेता लैंप-पोस्ट की ओर

और मन ही मन गुर्राता

उनकी तरह,

और फिर से सो जाता

बदन को  सिकोड़कर

और विचरता फिर से स्वप्न में,

 लिए हाथों में कुल्हड़ की चाय,

और सामने  पुआल की आग जलाए,

पर हाय री क़िस्मत,
खुलती है आँख तब उसकी

जब मिठाई का टुकड़ा समझ,

चूहे कुतर डालते हैं अँगूठा पैर का

 और चीटियाँ चढ़ आती  हैं

 बदन पर उसके,

 तब वह सोचता है उठकर,

 इन चीटियों को क्या पता,

 इन चूहों को भी क्या पता,

 कुतर रहे हैं जिसे  वे,

 वह कोई गुड़ की डली नहीं,

 चिथड़ो में लिपटा

 एक पुराना अख़बार है

जिसके पन्नों में अंकित पंक्तियाँ,

समय की मार के साथ धूमिल हो चुकी हैं,

जगह-जगह में बन गये  छिद्र,

 न जाने कब इस अख़बार के पन्ने को,

हवा के संग उड़ाकर कहीं लेकर

 पटक देंगे..।

चलो अब समेटता  हूँ अपने बिस्तर को,

अधूरे देखे सपने को

 ठंड  बाक़ी है अभी

 कल फिर ठिठुरुंगा यहीं,

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अनीता लागुरी "अनु"