मंगलवार, 7 जनवरी 2020

चीखें...

....….........
एक बस्ती में
एक चीख उभरी थी,
श्रेणी थी डर...
उसी बस्ती में दोबारा
दो तीन चीखें और उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी निराशा और हताशा
कुछ दिनों बाद
कुछ बड़े समूहों की चीखें उभरी
अबकी उसकी श्रेणी थी एकजुटता
और कुछ समय बाद
कुछ और चीखें दहलीजों के बाहर उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी हिम्मत , क्रोध
और अब आजकल
चीखें ही चीखें उभर रहीं हैं,
बिना डरे बिना घबराए
उन  चीखों  ने जुनून का रूप अख्तियार कर लिया है
हक और हुकूक की बातों के लिए
अपने अस्तित्व और अपने मान सम्मान के लिए
उस बस्ती ने अपनी चीखों को हथियार बना लिया
अब उसकी कोई श्रेणी नहीं
अब उसकी कोई भय नहीं
अब चीखें आदोलन करती है
अब चीखे  आवाज कहलाती है
विद्रोह के गीत गुनगुनाती नहीं
मशालें लेकर.. तख्तियाँ पकड़ कर
चीखों को आंदोलनों में तब्दील करती हैं
         🍁🍂🍁अनु लागुरी

मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

दिसंबर की ठंड

(........ इससे पहले कि ठंड खत्म हो जाए एक कविता ठंड पर मैं भी लिख डालती हूँ)
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जला अलाव सब बैठे हैं
बदन को पूरे कैसे ऐठें हैं
सर पर टोपी हाथ में दस्ताने
गरम चाय को चिल्लाते हैं

सूरज भी कंबल लपेटे
घर के अंदर बैठे हैं
कब जाएगी ठंड ये सारी
दिन गिनते रहते हैं

किट किट किट किट दांत है बजते
नहाने को सभी हमें है कहते
कंबल से बाहर ना निकलूँ मैं
नहाना तो दूर पानी भी ना छू लूँ मैं

छत पर आती है थोड़ी सी धूप
गगनचुंबी इमारतों ने रोक ली हर धूप
गांव का खुला अँगना याद आया
जहां धूप और अलाव के खूब मजे हमने पाया

सता ले लाख दिसंबर की ठं
मगर प्यारी लगे उतनी ही यह हमें
हर मौसम का है मजा निराला
ओ मम्मी अब दे दो गरम चाय का प्याला
    अनु🌥️⛄☃️🌧️🌫️

रविवार, 8 दिसंबर 2019

ढीठ बन नागफनी जी उठी!

 nagfani plant के लिए इमेज परिणाम
चित्र गूगल से साभार


मरुस्थल चीत्कार उठा
प्रसव वेदना से कराह उठा 
धूल-धूसरित रेतीली मरूभूमि में
नागफनी का पौधा
ढीठ बन उग उठा

था उसका सफ़र बड़ा कठिन
बादलों ने रहम दिखाया 
उसे कोई उर्वरक मिला 
ज़मीं से नमी का सहारा न मिला 
फिर भी ढीठ नागफनी का पौधा
बेशर्म बन उग उठा

चाहा तो उसने भी था
कि कोई भर लेता उसे भी
प्यार से अंकपाश में अपने
और सहलाता सजाता
केश-लतिकाओं में अपने
मगर वह गुलाब नहीं था

बिडंबना उसकी क़िस्मत की
काँटे थे गुलाब और नागफनी में 
मगर स्वीकारा गया गुलाब
और नागफनी!
यों ही अकेली ढीठ बन
मुस्कुराकर मार्मिक मरुभूमि में 
रह गयी बेकल बेचारी
कह गयी नई परिभाषा वह 
जिजीविषा के आधार की!
मगर जाग जाती थी कभी-कभी
दबी संवेदना उसकी
वह भी रो लेती थी चुपके से
जब तितली मंडराकर उसके ऊपर से
नज़रें फेरकर निकल जाती 
इंतज़ार करती थी शिद्दत से
मगर लोगों की हेय दृष्टि बदल  सकी

तो उसने ख़ुद को ही 
रूपांतरित करने का निश्चय किया 
बन स्वाभिमानी
नागफनी का पौधा 
गरम थपेड़े खाते-खाते
ठंड की मार सहते-सहते 
संघर्षों की गाथा लिखता गया
कभी  मुरझाना
कभी निराश न होना 
ख़ुद को समझाता गया 
अपनी पत्तियों को 
काँटों में रूपांतरितकर 
देहयष्टि को माँसल बना 
सहेजकर जल की बूँदें 
ढीठ बन
धारा के विरुद्ध भी जी गया
अगली बरसात तक 
पानी बचाकर ग़म पी गया 
अरे देखो!
जीवन संगीत का नया राग 
इठलाकर सुना गयी!
वह रेगिस्तान में उग आयी थी 
जीवन संघर्ष-सी एक रागिनी 
मुस्कुरा उठी थी एक नागफनी!

@अनीता लागुरी 'अनु'

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

स्वप्न में अलाव जलाए..!

चित्र और जानकारी गूगल से
( यह तस्वीर हॉलीवुड के बहुत ही प्रसिद्ध अभिनेता आर्नोल्ड श्वार्जनेगर की है, वह अपने समय के बहुत ही प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और बॉडीबिल्डर रहे हैं, उनके पीछे जो होटल है उसके सामने यह जो सिल्वर  की  विशाल मूर्ति लगी है, ये इनकी खुद की मूर्ति  है, जिन का अनावरण वर्ष 2014 में इन्होंने खुद किया था, परंतु एक समय ऐसा आया जब वक्त और रसूख ने पलटा खाया और वह उसी होटल में गए तब उन्हें वहाँ पर रहने की अनुमति नहीं मिली, और उन्होंने विरोध स्वरूप उसी मूर्ति के नीचे जिन का अनावरण उन्होंने किया था सारी रात ठंड में ठिठुरते हुए बिताई.... इसे कहते हैं वक्त का पलट जाना.. इस घटना से एक यह भी सीख मिलती है कि अपने अच्छे समय में किए गए अच्छे कार्य करें कभी धोखा दे जाते हैं इसलिए हमेशा खुद पर भरोसा बनाए रखें दूसरों पर भरोसा करने की अपेक्षा ...आज जो मैंने कविता लिखी है उसका इस चित्र से या अर्नाल्ड श्वाजनेगर से कोई संबंध नहीं है हां ठंड से ठिठुरते हुए व्यक्ति की जो हालत होती है उसे सोचते हुए मैंने यह जानकारियां साझा की और अपनी कविता नीचे डाली है मैंने)

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लल्लन हलवाई की दुकान तले

पौ फटे कोई ठिठुर रहा था,

  स्वप्न में अलाव जलाये

कोई ख़ुद को मोटे खद्दर में लिपटाये

सो रहा था,

जाग जाता था कभी-कभार

कुत्तों के असमय  भौंकने से,

फिर कछुए की भांति सर को निकाल

देख लेता लैंप-पोस्ट की ओर

और मन ही मन गुर्राता

उनकी तरह,

और फिर से सो जाता

बदन को  सिकोड़कर

और विचरता फिर से स्वप्न में,

 लिए हाथों में कुल्हड़ की चाय,

और सामने  पुआल की आग जलाए,

पर हाय री क़िस्मत,
खुलती है आँख तब उसकी

जब मिठाई का टुकड़ा समझ,

चूहे कुतर डालते हैं अँगूठा पैर का

 और चीटियाँ चढ़ आती  हैं

 बदन पर उसके,

 तब वह सोचता है उठकर,

 इन चीटियों को क्या पता,

 इन चूहों को भी क्या पता,

 कुतर रहे हैं जिसे  वे,

 वह कोई गुड़ की डली नहीं,

 चिथड़ो में लिपटा

 एक पुराना अख़बार है

जिसके पन्नों में अंकित पंक्तियाँ,

समय की मार के साथ धूमिल हो चुकी हैं,

जगह-जगह में बन गये  छिद्र,

 न जाने कब इस अख़बार के पन्ने को,

हवा के संग उड़ाकर कहीं लेकर

 पटक देंगे..।

चलो अब समेटता  हूँ अपने बिस्तर को,

अधूरे देखे सपने को

 ठंड  बाक़ी है अभी

 कल फिर ठिठुरुंगा यहीं,

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अनीता लागुरी "अनु"

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

मोनालिसा की मुस्कान.!

चित्र गूगल से साभार 
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एक  बौराये हुए कवि ने
आर्ट गैलरी में घूमते हुए,
मुस्कुराती हुई मोनालिसा की
 पेंटिंग से पूछा..!
 तुम मुस्कुरा रही हो
या फिर मैं तुम्हें देखकर
मुस्कराने की तैयारी कर रहा हूँ
सच है तुम्हारी मुस्कान सिर्फ़
रेगिस्तान में नागफनी ही उगा सकती है
 जर्जर पड़े मकानों में
 इंद्रधनुष नहीं उगा सकती हैं
 मोनालिसा की पेंटिंग ने
तीखी की अपनी बरौनियाँ
 और कह डाला कवि से
 तुम 21वीं सदी के कवि हो
मैं 1503 का एक अनसुलझा रह्स्य
मेरी मुस्कान में विलुप्त कुछ भी नहीं
तुम आज भी अपने ही सवालों के घेरे में
अपनी अंतरआत्मा को कोसते हुए
 विकल्प तलाशते हो
 परंतु मेरी स्थिर मुस्कान
कई शताब्दियों तक भी यों ही क़ाएम रहेगी
क्योंकि मैं विकल्प नहीं 
विकल्प मुझे तलाशते हैं।
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#अनु लागुरी

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

वो गुलाबी स्वेटर....

वो गुलाबी स्वेटर....



कहाँ गई 
प्यारभरी रिश्तों  की  बुनावट,


वो नर्म-सी  गरमाहट..।

वो बार-बार 
बुलाकर उपर से नीचे
तक नाप लेने की 
तुम्हारी शरारत,
वो छेडख़ानी
वो ऊन के गोलों  से
मुझे लपेट देना
और कहना मुझसे  ...
पकड़ो....पकड़ो... मुझे...!

याद आती है 
बातें तुम्हारी
तुम बुनती रहीं
रिश्तों  के महीन धागे,
और मैं  बुद्धू
अब तक उन रिश्तों  में
तुम्हें ढूँढ़ता  रहा।

उन रंग-बिरंगे 
ऊनी-धागों  में छुपी 
तुम्हारी खिली-सी मुस्कुराहट,
ढूँढ़ता रहा वह मख़मली एहसास
जब  प्यार से कहती थी मुझे
ऐ जी ....!
प्लीज़  चाय...
मेरे लिए भी.....!! 

हाथों में आपका  स्वेटर उलझा  है
वक़्त  बावरा हो चला है,
सब समेटे चल पड़ा है
ज़र्द होती हथेलियों के बीच
अश्कों  को पौंछता
नीम-सा कड़वा-मीठा हो चला है।

पर क्या कहूँ....
यादें  हैं बहुतेरी
यादों  का  क्या....!
किंतु  अब  भी  जब
खुलती है अलमारी
तुम्हारे  हाथों से बना
वो गुलाबी स्वेटर
तुम्हारी यादों  को 
भीना-भीना महकाता है 
कहता  है  मुझसे
अब  पहन  भी लो मुझे,
समेट लो अपने
अंकपाश में  मुझे
और धीरे से कहो 
स्वेटर में तुम ही हो मेरे साथ !
#अनीता लागुरी (अनु)

मंगलवार, 26 नवंबर 2019

मैं जूता एक पैर का..


                             चित्र:गूगल
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   सड़क पर चलते हुए
मिल गया जूता एक पैर का
लेकिन दूसरा था नदारद
मैंने सोचा, दूसरा जूता कहाँ
चलो आगे देखते हैं
कुछ बच्चे नंगे से दौड़ रहे थे
आपस में कुछ जोड़ रहे थे
क्या होगा झाँका मैंने
देखा तो बस दंग रह गया,
एक जूता जिस पर
भूख लिखा था
कपड़ा और मकान लिखा था
ठंड से बचने को स्वेटर लिखा था

झपटम झपटाई से
बच्चों की कुटाई से
रो रहा था जूता बेचारा
मैंने तुम्हारा क्या है बिगाड़ा

निरीह लावारिस-सा मैं  अकेला
तेरी तरह में भी भूखा
क्रोध जो अपना मुझपर उतार रहे हो,
सच मानो,एक भूल बड़ी तुम कर रहे हो

 था मैं भी किसी के पैर की शोभा
स्कूल से लेकर कॉलेज तक
पहले इंटरव्यू से लेकर कॉफ़ी हाउस तक
प्रेमिका से लेकर वाइफ़ तक
सबको उठाया मैंने,

बिना कोई चुभन पहुँचाये,
हर ठोकर से बचाया मैंने
आज फिकवा दिया गया हूँ,
लोगो की संवेदनाओं से काट दिया गया हूँ,
क्यों, अब पुराना हो चुका हूँ?

 हालात इस कदर ख़फ़ा हो गये मुझसे,
अकेला मारा फिर रहा हूँ,
सुनकर दर्द अभागे का,
बच्चों ने पुचकार दिया,
पहन एक जूता मैंने, दूसरा पैर उस अभागे के अंदर डाल दिया,

वो मुझे देख के सकपकाया,
अपनी माली हालत पे शरमाया,
फिर भूल सब  कुछ कहा मुझसे,समझ सकता हूँ हालात तेरे,
तू भी बेजार मैं भी बेजार,

मिलकर करेंगे
दोनों एक दूसरे का बेड़ा पार,
       अनीता लागुरी "अनु"