मंगलवार, 26 नवंबर 2019

मैं जूता एक पैर का..


                             चित्र:गूगल
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   सड़क पर चलते हुए
मिल गया जूता एक पैर का
लेकिन दूसरा था नदारद
मैंने सोचा, दूसरा जूता कहाँ
चलो आगे देखते हैं
कुछ बच्चे नंगे से दौड़ रहे थे
आपस में कुछ जोड़ रहे थे
क्या होगा झाँका मैंने
देखा तो बस दंग रह गया,
एक जूता जिस पर
भूख लिखा था
कपड़ा और मकान लिखा था
ठंड से बचने को स्वेटर लिखा था

झपटम झपटाई से
बच्चों की कुटाई से
रो रहा था जूता बेचारा
मैंने तुम्हारा क्या है बिगाड़ा

निरीह लावारिस-सा मैं  अकेला
तेरी तरह में भी भूखा
क्रोध जो अपना मुझपर उतार रहे हो,
सच मानो,एक भूल बड़ी तुम कर रहे हो

 था मैं भी किसी के पैर की शोभा
स्कूल से लेकर कॉलेज तक
पहले इंटरव्यू से लेकर कॉफ़ी हाउस तक
प्रेमिका से लेकर वाइफ़ तक
सबको उठाया मैंने,

बिना कोई चुभन पहुँचाये,
हर ठोकर से बचाया मैंने
आज फिकवा दिया गया हूँ,
लोगो की संवेदनाओं से काट दिया गया हूँ,
क्यों, अब पुराना हो चुका हूँ?

 हालात इस कदर ख़फ़ा हो गये मुझसे,
अकेला मारा फिर रहा हूँ,
सुनकर दर्द अभागे का,
बच्चों ने पुचकार दिया,
पहन एक जूता मैंने, दूसरा पैर उस अभागे के अंदर डाल दिया,

वो मुझे देख के सकपकाया,
अपनी माली हालत पे शरमाया,
फिर भूल सब  कुछ कहा मुझसे,समझ सकता हूँ हालात तेरे,
तू भी बेजार मैं भी बेजार,

मिलकर करेंगे
दोनों एक दूसरे का बेड़ा पार,
       अनीता लागुरी "अनु"

13 टिप्‍पणियां:

  1. वाह। शीर्षक देखकर ही मन तुम्हारी ब्लॉग की और खींचा चला आया..#एक पैर का जूता
    एक पैर का जूता बहुत ही रोमांचक शीर्षक लिखा है तुमने पढ़ना शुरू किया तो समझ में आया एक जूते के जरिए तुमने एक जिंदगी जीने की कोशिश की है और वो कोशिश भी मेरी तरफ से पूरी तरफ से कामयाब रही।
    मैं सिर्फ कविताएं पढ़ती हूं और उनके भाव को अपने अंदर observe करती हूं, अच्छा मुझे तब लगता है जब सामने वाले की कविताएं बिल्कुल सीधे साफ सपाट मेरे दिल को छू जाए बहुत भारी शब्दों से सजी हुई कविताएं पढ़ने में अच्छी तो लगती है लेकिन उन कविताओं के साथ बहुत जल्दी हम जैसों का मन न्याय नहीं कर पाता है
    **निरीह लावारिस-सा मैं अकेला
    तेरी तरह में भी भूखा
    क्रोध जो अपना मुझपर उतार रहे हो,
    सच मानो,एक भूल बड़ी तुम कर रहे हो

    था मैं भी किसी के पैर की शोभा
    स्कूल से लेकर कॉलेज तक
    पहले इंटरव्यू से लेकर कॉफ़ी हाउस तक
    प्रेमिका से लेकर वाइफ़ तक
    सबको उठाया मैंने,

    बिना कोई चुभन पहुँचाये,
    हर ठोकर से बचाया मैंने
    आज फिकवा दिया गया हूँ,
    लोगो की संवेदनाओं से काट दिया गया हूँ,
    क्यों, अब पुराना हो चुका हूँ?
    I liked the interview line very much.👌
    कल का इंतजार रहेगा कल कौन सी कविता लेकर आती हो.।

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    1. . सुप्रभात मुझे बहुत अच्छा लगता है जब सुबह-सुबह आपकी प्रतिक्रिया मेरे रचनाओं पर आती है इतने विस्तार से आप टिप्पणियां करती हैं कि मेरा मन बहुत हर्षित हो जाता है खुद की ही कविताओं में खो जाती हूं और सोचती हूं क्या इससे भी बेहतर में लिख सकती थी
      हमेशा से मैंने मानी है, किसी भी रचनाकार की रचना में आने वाले टिप्पणी उसकी दूसरी आने वाली कविता में बहुत प्रभाव डालती है। क्योंकि वह उत्साह से लबरेज होता है । जिस कारण वह नए सृजन कर रही कविता में बहुत सारे भाव व्यक्त कर देता है.
      मुझे बेहद खुशी है कि आप हमेशा मेरी रचनाओं में आती हैं और दिल से अपनी बात रखते हैं ऐसे ही साथ बनाए रखें बहुत-बहुत धन्यवाद आपका🙏

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (27-11-2019) को    "मीठा करेला"  (चर्चा अंक 3532)     पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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    1. .. जी निमंत्रण के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद मैं जरूर आऊंगी

      हटाएं
  3. वाह!
    आदरणीया दीदी जी बहुत सुंदर,लाजावाब,अप्रतिम,भावपूर्ण पंक्तियाँ। प्रथम तो नमन आपको जो एक तिरस्कृत जूते की व्यथा कथा को समझते हुए उसे पंक्तिबद्ध कर एक शिक्षाप्रद रचना के रूप में प्रस्तुत किया आपने। मानवीकरण में रचनाएँ मुझे बड़ी रोचक लगती है। और इसमें निहित वो रोटी कपड़े को तरसता,छटपटाता बाल मन मन को व्याकुल कर गया।
    बहुत सुंदर सृजन आदरणीया दीदी जी।
    सादर नमन शुभ संध्या 🙏

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  4. वाह, अनिता लागुरी 'अनु' जी.
    फटहे जूते और कड़के इन्सान की दोस्ती हम को अंधे और लंगड़े की दोस्ती की कहानी की याद दिलाती है - 'राह दिखाता जाता हूँ, तुम आगे बढ़ते जाओ ---'

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  5. अनु जी, आपकी यह रचना " जूता एक पैर का " कल अपराह्न मैं अपने इलाज के लिये वाराणसी गया था ,तो वहीं समीप प्रसिद्ध दुर्गाजी मंदिर के बाहर खड़े-खड़े ही पढ़ रहा था..।
    उपेक्षा और तिरस्कार के दर्द को अनुभूतियों से ही समझा जा सकता है। वैसे,तो उनकी यह रचना तथाकथित साहित्य कला का विशेष प्रदर्शन नहीं करती है, परंतु इसमें कितनी सरलता से वह बात कही गयी है, जो हर व्यक्ति के जीवन से जुड़ी है।
    कड़वी वाणी बोलने वाले साहित्यकारों को यह समझना चाहिए, शब्दों का भंडार तो अनेक विद्वानों के पास तब भी था और अब भी है, परंतु फिर भी संत कबीर की वाणी अमर है, क्यों कि उन्होंने ढाई आखर प्रेम का यह पाठ पढ़ा था।
    खैर , गंभीर अवस्था में भी मैं इस रचना को पढ़ते-पढ़ते अपने बचपन की स्मृतियों में खो गया..
    सोच रहा हूँ कि यह मानव का जीवन भी कितना विचित्र है , वह जीवनपथ पर चलते- चलते बूंद-बूंद कर कितना दर्द इकट्ठा कर लेता है।
    पर सच यह भी है कि यही जमा दर्द तो हमारा पारसमणि है।

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  6. वो मुझे देख के सकपकाया,
    अपनी माली हालत पे शरमाया,
    फिर भूल सब कुछ कहा मुझसे,समझ सकता हूँ हालात तेरे,
    तू भी बेजार मैं भी बेजार,

    मिलकर करेंगे
    दोनों एक दूसरे का बेड़ा पार,
    अनु दी, फटे हुए जूते और इन्सान की माली हालत का बहुत ही सुंदर वर्णन।

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  7. आधुनिक कविता का उत्कृष्ट उदाहरण है अनु जी आपकी यह रचना. शानदार बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से समाज का कड़वा सच उभर आया है.
    बधाई एवं शुभकामनाएँ इस ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति के लिये.
    लिखते रहिए.

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  8. वाह्ह !!! प्रिय अनु आपने बहुत प्यारा सृजन किया है. जूते के ज़रिये ज़िंदगी की सच्चाई उघाड़ दी है आपने. ऐसी कविताएँ सीधे दिल को छू लेती हैं. आप ख़ूब ऐसा ही लिखती रहना.
    बहुत सारी बधाई.

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  9. अद्भुत । गहन सोच और बेहद खूबसूरत रचना 👌👌

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  10. वाह! अद्भुत । समाज के कुछ वंचित एवं पीड़ित जन के पीड़ा को एक बेहतरीन उदाहरण के साथ प्रभावशाली व भावयुक्त शब्दों का चयन करके हृदय स्पर्शी रचना प्रस्तुत किया है आपने।

    बधाई एवं धन्यवाद ऐसी प्रेरित करने वाली रचना हमारे साथ साझा करने के लिए।

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