भावों को शब्दों में अंकित करना और अपना नज़रिया दुनिया के सामने रखना.....अपने लेखन पर दुनिया की प्रतिक्रिया जानना......हाशिये की आवाज़ को केन्द्र में लाना और लोगों को जोड़ना.......आपका स्वागत है अनु की दुनिया में...... Copyright © अनीता लागुरी ( अनु ) All Rights Reserved. Strict No Copy Policy. For Permission contact.
शनिवार, 9 नवंबर 2019
गुरुवार, 7 नवंबर 2019
पब्लिक बेचारी किधर जाये..!!
मार खाये पुलिस
थोड़ा अटपटा साथ है ज़रूर मगर
बात पते की कहती हूँ
पुलिस माँगे सुरक्षा
वकील माँगे न्याय
तो जनाब ये पब्लिक
बेचारी किसके द्वारे जाये?
लगता है सिस्टम की कार्य-प्रणालियाँ
चल पड़ी हैं भस्मासुर की राह पर
ताब-ओ-ताकत की कलई खोलकर
ख़ुद से ही दीमक को न्यौता दे दिया.
बुधवार, 6 नवंबर 2019
तुम्हारी मृदुला

तापस!
मेरी डायरियों के पन्नों में,
रिक्तता शेष नहीं अब,
हर सू तेरी बातों का
सहरा है..!
कहाँ डालूँ इन शब्दों की पाबंदियाँ
हर पन्ने में अक्स तुम्हारा
गहरा है...!
वो टुकड़ा बादल का,
वो नन्हीं-सी धूप सुनहरी,
वो आँगन गीला-सा
हर अल्फ़ाज़ यहाँ पीले हैं।
तलाशती फिर रही हूँ..
शायद कोई तो कोना रिक्त होगा...!
वो मेरा नारंगी रंग....!
तुम्हें पढ़ने की मेरी अविरल कोशिश..!
और मेरे शब्दों की टूटती लय..!
वो मेरी मौन-मुखर मुस्कान..
कैसे समाऊँ पन्नों में ..!
हर सू तेरी यादों का सहरा है।
तापस..!
कहाँ बिखेरूँ इन शब्दों की कृतियाँ
यहाँ रिक्तता शेष नही अब...!
तुम्हारी मृदुला
#अनीता लागुरी 'अनु'
रविवार, 3 नवंबर 2019
नंदू...!!
नंदू
नंदू दरवाजे की ओट से,
निस्तब्ध मां को देख रहा था...
मां जो कभी होले से मुस्कुरा देती
तो कभी दौड़ सीढ़ियों से उतर
अंगना का चक्कर लगा आती..!
तू कभी चूल्हे पर चढ़ी दाल छोंक आती..
माँ,, आज खुश थी बहुत
अब्बा जो आने वाले थे आज
चार सालों के बाद..
निकाल लाई संदूकची से कानों की बालियां..
और लगा..!!
माथे पर लाली
बालों में गजरा...!
और पहन वो साड़ी नारंगी वाली,
खुद ही मन ही मन शरमा जाती
मां को देख मेरा भी मन हर्षाया
जो कभी पायल बजाती रुनझुन रुनझुन..
और कभी मुझे उठाती गोद में
आज मां खुश थी बहुत
मांगी थी दुआ भगवान से
दे देना लंबी उम्र मेरे सुहाग को
पर...?
अब भी नंदू मां को देख रहा था
मां जो अब चुप थी...
मां जो अब खामोश थी
कुछ कह रही थी तो माँ की आँखे
और आंखों से बहती जल की निर्मल धारा
ताई ने तोड़ी मां की चूड़ियां
पोंछ डाला लाल रंग माथे का
ओर बिखेर दिया मां का जुड़ा
नोच डाला वह चमेली के फूल
पल में बदल गई थी दुनिया हमारी
जहां गूंज रही थी मां की हंसी
अब गूंजने लगे थे सिसकियों के सुर..!
अब्बा आए तो जरूर थे
पर चार कंधों में लेट कर
चंद बे मकसद बेरहम लोगों ने
दागी थी गोलियां उनके सीने पर
और मैं अब भी मां को देख रहा हूँ
दरवाजे की ओर से निस्तब्ध...!!
अनीता लागुरी अनु🍁🍁
शनिवार, 2 नवंबर 2019
मौन होता मनुष्य..!!
.....................................
मगर उनका मौन
उतना ही रौद्र और
शापित होता है जितना कि
एक मुलायम मासूम खरगोश को
मार डालने के बाद
ज़ेहन में आती
उसके गोश्त की गंध
आवाक हो जाता हूं ...
मैं भी...!!
इंसानों के प्रतिपल
बदलते रूप को देखकर
और जाग जाता है
मेरे अंदर छिपा
एक नन्हा शिशु मन
जो भय मिश्रित
आंखों से...घड़ियां गिनता है
क्योंकि मैं नहीं चाहता..!
जब मैं मृत्यु को प्राप्त होऊंगा
तो मेरी आत्मा ....
मुझे कोसती हुई ..!!
शुक्रवार, 1 नवंबर 2019
आरे के सोते हुए जंगल...

कुछ पेड़ ऊँघ रहे थे
कुछ मेरी तरह
शहर का शोर सुन रहे थे
कि पदचापों की आती लय ताल ने
कानों में मेरे,
पंछियों का क्रंदन उड़ेल दिया.....
चमकते दाँतों के बीच,
राक्षसी हँसी से लबरेज़ दानवों को
जो कर रहे थे प्रहार हम पर
काट रहे थे हमारे हाथों को
पैरों को और गले को
चीख़ें हमारी अनसुनी कर.....
धड़ाधड़ प्रहार पर प्रहार कर
आरे के जंगल को काट डाला आरियों से
पलभर में नकार दिया
क्यों मुख्यधारा में लाने को
विकास उन्नति के लिये
हमारी ही बलि क्यों..?
क्या तुम नही जानते..?
सालों लगते हैं हमें सघन होने में,
यूँ ही एक दिन में बड़े नहीं हो जाते है.!!
तुम्हारे अंदर की श्वास-गति है..!!
काट जो रहे हो विकास के नाम पर,
साँसों को अपनी ख़ुद बंधक बना रहे हो
आहह....!!!
लो मुझे भी काट दिया..!
अपने ही जल ,जंगल ज़मीन से
अलग किया..!
पर याद रखना विकास के नाम पर
हमारी जड़ों को उखाड़ फेंकने वालो....
साँसों को जब तरसोगे एक दिन
रुदन हमारा याद आएगा..!
( कुछ दिनों पहले मुंबई में मेट्रो सेड के लिए रातों-रात काटे गए ,आरे के जंगल , जहां कई हजारों पेड़ों को रात्रि के मध्य समय में काट दिया गया उसी घटना से प्रेरित होकर ये रचना लिखी मैंने)
#अनीता लागुरी 'अनु'
(चित्र साभार ..google से)
मंगलवार, 29 अक्टूबर 2019
कांस के फूल
दूर दूर तक
दूर-दूर तक धूल उड़ाती चौड़ी सपाट सड़के, शांत पड़ी रह गई, जब बारिश की बूंदों ने असमय ही उन्हें भींगो दिया.. यूं लगा उन्हें मानो धरा को भिं...
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अधखुली खिड़की से, धुएं के बादल निकल आए, संग साथ में सोंधी रोटी की ख़ुशबू भी ले आए, सुलगती अंगीठी और अम्...
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तापस! मेरी डायरियों के पन्नों में, रिक्तता शेष नहीं अब, हर सू तेरी बातों का सहरा है..! ...
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... ..हर किसी की जिंदगी में एक ऐसा मोड़ आता है जब उसकी जिंदगी किसी की चाहने या न चाहने पर निर्भर हो जाती है ओर उस वक्त इंसान बिखरने लगता ह...