शुक्रवार, 6 मार्च 2020

मैं तेरी सोन चिरैया


 मैं तेरी सोन चिरैया
.........................
 ओ मैया मेरी, मैं तेरी सोन चिरैया
 छोड़कर तेरा अँँगना
 उड़ जाऊंगी फुर्र से कहीं
ले बांध दें तागा  मेरे पैरों पर
 फिर ना जाऊँँगी कहीं

 तेरे मनुहार से
 बाबा के लाड - प्यार से
गिर कर उठती रही कई बार मैं
 ओ मैया मेरी, मैं तेरी सोन चिरैया
 अंगना को तेरी छोड़ कर
 फुर्र से से उड़ जाऊँँगी कहीं

 याद है मुझको
 बाबा से जब मार पड़ी थी
मैं तो रोई थी रुक रुक कर
पर तेरी आंखें वीरान पड़ी थी
ओ मैया मेरी मैं तेरी सोन चिरैया
 ना जता इतना स्नेह
जब जाऊँँगी छोड़कर तुझे
क्या तू  रोक  पायेगी मुझे

ये अँगना छूटेगा
 खेत खलिहान छूटेंगे
 अमिया की डलियाँ में बांधी बाबू की
रस्सी वाली झूला  छूटेगी
सखियाँँ, तेरी डाँँट- फटकार
सब छोड़ कर उड़ जाएगी तेरी सोन चिरैया एक दिन

 घर को तेरे सुना करके
 पिया का घर बसाऊँँगी
 अब तक तेरी दुलारी थी
अब उस घर की सोनचिरिया कहलाउँँगी


अनीता लागुरी"अनु"







मंगलवार, 25 फ़रवरी 2020

आदिवासी महिला होने का मतलब


मुँह अँधेरे वह चल पड़ती है
अपनी चाँगरी में डाले जूठे बर्तनों के जोड़े
और सर पर रखती है एक माटी की हाँडी
और उठा लेती है जोजो साबुन की
 एक छोटी-सी टिकिया
जो वहीं कहीं कोने में फेंक दी जाती है
और नंगे पाँव ही निकल पड़ती है पोखर की ओर
हुर्र... हुर्र....हुर्र....

मर सैने पे......हुर्र मर... मर..
का शोर करती हुई,
बकरियों और गायों को हाँक ले जाती है
वह परवाह नहीं करती बबूल के काँटों की
क्योंकि काँटे पहचानते हैं उसके पैरों को,
पगडंडियाँ झूम उठती हैं
जब उसकी काली फटी पैरों की बिवाइयों में
मिट्टी के कण  धँस जाते हैं                               
वह परिचित है उसके पैरों की ताकत से
उसके बग़ल से आती पसीने की गंध से
वह परवाह नहीं करती अपने बिखरे बालों की
और न ही लगाती है डाहाता हुआ लाल रंग माथे पर
उसका आभूषण उसकी कमर के साथ बँधा हुआ उसका दुधमुंहा बच्चा होता है
जो अपने में ही मस्त
अपनी माँ के स्तन से चिपका हुआ
दुनियादारी की बातें सीखता है
और माँ गुनगुनाते हुए बाहृ परब का कोई गाना
अतिथियों के आगमन से पहले
लीपती है आँगन को गोबर से
और ओसारे में बिछा देती है एक टूटी खटिया
जो द्योतक होती है उसके अतिथि प्रेम की
और तोड़ लाती है सुजना की डालियाँ
पीसती है सिलबट्टे पर इपील बा की कलियाँ
और मिट्टी के छोटे  से हाँडे में
चढ़ा देती है अपने खेत के धान से निकले चावल
जो सरजोम पेड़ की लकड़ियों संग उबलते हुए
सुनाते हैं उसकी  मेहनत की कहानी
वह खेतों के बीच से गुज़रती टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों के बीच
ताकती है उन राहगीरों को
जो  जाते हैं उसके मायके के पास लगने वाले हाट बाज़ार में को
जहाँ संदेशा भिजवाती है।
"अंणा बाबा देरंगम काजीए...
आबेना ती रे जुका
कंसारी दाली कूल ते चा|"
फिर तैयार होती है अपने जूड़े में
सरहूल  का फूल खोंसकर,
बढ़ जाती है उस ओर जहाँ सुसुन आँकड़ा में
दामा दुमंग के साथ गाये  जाते हैं जीवन के गीत
उड़ती हुई धूल की परवाह न करते हुए
गोलाकार पँक्तियों में नृत्य करते हुए
थका देती है उन पैरों को
जो जानते हैं इसके अंदर रची-बसी
आदिवासी महिला होने का मतलब |

जोहार...!!!
अनीता लागुरी 'अनु'
 कविता में मैंने कुछ स्थानीय भाषा के शब्द जोड़े हैं जिनके अर्थ नीचे दिए गए हैं
(१)चाँगरी-टोकरी
(२)इपील बा-खट्टी मीठी फूल की कलियाँ
(३)जोजो साबुन-इमली से बनने वाला साबुन
(४)सुसून आँकड़ा-नृत्य स्थान
(५)"अंणा बाबा देरंगम काजीए...
आबेना ती रे जुका
कंसारी दाली कूल ते चा- मेरी मायके से लगने वाले बाजार को जाने वाले राहगीर वहां अगर मेरी बाबा से मुलाकात होगी तो उनसे कहना मेरे लिए खेसारी का दाल भेज दे
(६)मर सैने पे......हुर्र मर... मर..- भेड़ बकरियों को अपनी भाषा में हांका जाता है चलो चलो आगे बढ़ो.


रविवार, 23 फ़रवरी 2020

आदिवासी औरत होने का मतलब

मुँह अंधेरे वो चल पड़ती है
अपनी चाँगरी में डाले जूठे बर्तनों का जोड़ा
और सर पर रखती है एक माटी की हांडी
और उठा लेती है जोजो साबुन की एक छोटी सी टिकिया
जो वहीं कहीं कोने में फेंक दी जाती है
और नंगे पाँव ही निकल पड़ती है पोखर की और
हूरें हूरें ,मर सैने पे......हूरें मर मर..
का शोर करती हुई,
बकरियों और गायों को हाँक ले जाती है
वो परवाह नहीं करती बबूल के कांटो की
क्योंकि  कांटे  पहचानते हैं उसके पैरों को,
पगडंडियाँ झूम उठती है  
जब उसकी काली फटी पैरों की बिवाइयों में
मिट्टी के कण  धँस जाते हैं                                 
वो परिचित है उसके पैरों की ताकत से
उसके बगल से आती पसीने की गंध से,
वो, परवाह नहीं करती अपने बिखरे बालों की
और ना ही लगाती है डाहाता हुआ लाल रंग माथे पर
उसका आभूषण उसकी कमर के साथ बंधा हुआ उसका दूधमूँहा बच्चा होता है
जो अपने में ही मस्त
अपनी माँ के स्तन से चिपका हुआ
दुनियादारी की बातें सीखता है।
और माँ गुनगुनाते हुए बाहृ परब का कोई गाना
अतिथियों के आगमन से पहले
लीपती है आँगन को गोबर से,
और ओसारे में बिछा देती है एक टूटी खटिया
जो घोतक होता है उसके अतिथि प्रेम का
और तोड़ लाती है सुजना की डालियाँ
और  पीसती है सिलबट्टे पर इपील बा, की कलियाँ,
और मिट्टी के छोटे  से हाँडे मे
चढ़ा देती है अपने खेत के चावल
जो सरजोम पेड़ की लकड़ियों संग उबलते हुए,
सुनाते हैं उसकी  मेहनत की कहानी,
वो खेतों के बीच से गुजरती टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों के बीच
ताकती है उन राहगीरों को
जो  जाते हैं सके मायके के पास लगने वाले हाट बाजार में,
जहाँ संदेशा भिजवाती है।
"अंणा बाबा देरंगम काजीये...
आबेना ती रे जुका,कंसारी दाली कूल ते चा"
और तैयार होती है अपने जुड़े में
सरहूल  का फूल खोंस कर,
बढ़ जाती है उस र जहाँ सुसुन आँकड़ा में
दामा दुमंग के साथ गाए जाते हैं जीवन के गीत
उड़ते हुए धुलों की परवाह ना करते हुए,
गोलाकार पंक्तियों में नृत्य करते हुए
थका देती है उन पैरों को
जो जानते हैं इसके अंदर रची बसी
आदिवासी महिला होने का मतलब.

..........जोहार..अनीता लागुरी अनु

रविवार, 16 फ़रवरी 2020

हाँडी में पकते छोटू के सपने..



उस  धुँए में कुछ पक रहा था
 शायद कुछ सपने..!
 कुछ रोटी के कुछ खीर के,
या शायद दाल मास के,

 गीली लकड़ियाँ भी सुलग रही थी
उस माटी के हाँडी के संग..!
वो हाँडी ही जाने,
क्या समाया था उसमें,

पर लकड़ी के पीढ़े पर बैठा छोटू
बुनने लगा था सपने हजार,
अम्मा की आँखों मे छलक आयेआँसू
कहा तेरे ही सपने है,
रुक परोसती हूँ,
                  अनीता लागुरी "अन्नु"☺️

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

Valentine Day


❤ प्यार एक ख़ूबसूरत एहसास है इसे हर वो दिल महसूस करता है........ जो प्यार के एहसास से  गुज़रता है।  उसके लिए हर वह पल ख़ास  होता है जब वह अपने प्यार से मिलता है।  उसे उसकी बातें अच्छी लगती हैं...... उसकी मुस्कुराहट अच्छी लगती है़..... उसका हर अंदाज़-ए-बयां उसे अच्छा लगता है और वो उसकी चाहत में पूरी तरह से  डूब चुका होता है।  ......क्या वाक़ई  इतना ख़ास होता है प्यार ?..... हमें  शायद इतना ख़ास   महसूस होता होगा  प्यार। चलो अब बातें प्यार की कर ही रहे हैं तो कुछ अपनी भी बातें जोड़ दूँ  इसमें। 


पता है ?  

मुझे लगता है .....

जब तुम मुस्कुराते हो 

तब कहीं  झरने की  कल-कल  करती 

मधुर-सी आवाज 

यूँ  ही मेरे आसपास बिखर जाती है.....! 

कुछ ऐसा संगीत मेरे रोम-रोम में गूंजने लगता है....!!!   

जिसकी ध्वनि सिर्फ़ मुझे सुनाई पड़ती है 

और मेरा मन यूँँ ही मस्त-मगन 

हर गली हर चौराहे पर  नाचने लगता है ....।.

जानते हो क्यों....? 

क्योंकि शायद मैं प्यार के एहसास में 

सर से पांव तक डूबी हुई हूँ, 

यह प्यार ही तो है 

जो मुझे सजने-संवरने और यूँ  ही 

आईने के सामने खड़े होकर 

ख़ुद  को घंटो तक देखने की मेरी इच्छा को बढ़ाता है ......।

न  चाहते हुए भी 

माथे पर एक छोटी-सी बिंदी लगाने को मजबूर करता है ।   

हाथों में चूड़ियां और ,

छरहरी काया पर  मेरी एक सुंदर-सा 

अनारकली सूट बदल-बदलकर 

पहनने को मजबूर करता है..।

कैसे बताऊँ मन न जाने क्या-क्या सोचता है। 

शायद इसी को कहते हैं प्यार...

पर क्या इसी  प्यार के लिए 

हर एक दिल धड़कता है।

हर पल हर घंटे 

हर ल्मम्हे जीता है।

क्या इस प्यार के लिए सिर्फ एक सप्ताह काफी होता है ।
ना जाने किस पाश्चात्य प्रभाव भी आकर
 प्रेम दिवस के नामकरण करते चले गए

इसे हम किसी समय के परिधि में नहीं बांध सकते हैं .!

इस प्यार को तो यह भी नहीं पता 

कि  हम इंसानों ने 

इसके लिए भी सीमाएं तय कर दीं  हैं...। 

जबकि  प्यार तो अनंत है ।

असीमित है ।

जिसका कोई ओर-छोर नहीं ,

यह तो हर उस दिल में बसता है ।

जहां पर हम किसी के लिए कुछ ख़ास महसूस  करते हैं !          

उसके लिए हर वो बातें सोचते हैं 

जो  उसे अच्छी लगे 

उसकी ख़ुशी के  लिए हर जतन करते हैं..।. 

जब वो गुजरता है गली के कोने से,

तो छत के किसी कोने में खड़े होकर उसे देखते हैं ।

तब तक जब तक की वह नजरों से ओझल ना हो जाए। 

उसकी हर अच्छी-बुरी बातों को 

हम सही मानते हैं ।

और जब वह पास आता है ।

तो अपनी अंगुलियों में 

दुपट्टे का  छोर  घुमाए  बिना 

उसकी ओर देखने  

उसके धड़कनों को सुनने का प्रयास करते हैं ।

शायद यही प्यार है ।   

अनचाहा अनकहा अद्भुत प्यार ...

जो  तुम्हें मुझसे  है .... और  मुझे  तुमसे..... ।

मैं अपने प्यार को एक  सप्ताह में नहीं बांट सकती 

मेरे लिए तो हर वह पल ख़ास  है।

हर वो पल एक उत्सव की तरह है.।

जब तुम मेरे पास से गुजरते हो !  

मुझसे बातें करते हो ,

तुम्हारे होने न होने का एहसास ,

मुझे अंदर ही अंदर बेचैन करता है ।

और तुम्हें देखकर मेरी आंखें भर आती हैं ख़ुशी  से 

मेरे लिए तो ये सारे पल वैलेंटाइन-डे से भी से भी ज़्यादा ख़ास हैं 

क्योंकि प्यार की  सीमाओं की कोई परिधि नहीं होती......। 

# अनीता लागुरी (अनु)

युद्ध :विचारों का अतिक्रमण


                               चित्र गूगल से
                                  ..........
    युद्ध: विचारों का अतिक्रमण
🍂🍁🍂🍁🍂🍁🍂
 कभी सोचा है तुमने
 युद्ध क्या है..?
 युद्ध कहाँ है..?
 क्या है ?
 दो देशों के बीच नहीं,
 वहाँ युद्ध नहीं है..!
 वहाँ  अहंकार है!
अपने लोगों के बीच
राजा कहलाने की
अंधी मानसिकता होती है युद्ध!
उसका रुख़ ज़्यादातर,
अपने ही देश की ओर होता है,
जहाँ सीमाएँ नहीं होती,
 बंदूक और बम से लैस,
 सैनिक नहीं होते,
दो देशों के झंडे नहीं होते...
 वह रुग्ण मानसिकता, रुख़ करती है वहाँ का,
 जहाँ धर्म, ज़ात-पाँत, संप्रदाय,
 विचारों पर अंधा अतिक्रमण करते हैं..।
🍁🍂🍁🍂🍁🍂
अनीता लागुरी 'अनु'

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

व्याकुल समुद्र....


                                चित्र : गूगल से
                        🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁
                                       व्याकुल समुद्र
🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁
रेत में अंदर तक धँसे
मेरे पाँव को  छू रहीं थीं
समुद्री लहरें
शायद मीठे होने की चाहत में
हर बार हर लहर के साथ
पछाड़ आती थी नमक की एक टोकरी
किनारे पर

पर दुर्भाग्य उसका
उतनी ही नमकीन वह हर बार हो जाती
जितनी शिद्दत से लहरों को हर बार भगाती

देखकर उसकी  जिजीविषा
मन आतुर हो उठा भरने को उसे आगोश में
पर हर बार दब जाता था रुदन उसका
लहरों के संग तीव्र शोर में

हलक सूखता उसका भी
पर प्यासा ही रह जाता है
एक घूँट नीचे नहीं जाता
नमक के उस घोल में

क्या..उसके आँसुओं ने ही
समुद्र में इतना नमक भरा था?
आह! निकलती अंतर्मन से उसके
जब पानी भाप बनकर उड़ जाता था
और सतह के अंदर नीम गहराइयों में
हलचल मचाते जलचर
जीवन जी जाते थे!

पर उसका क्या उसकी इच्छा का क्या
मीठे पानी की खोज में
सतह पर उभर-उभरकर
चाँद को बुलाता है...पर चाँद
ज्वार-भाटे में उसे उलझाकर छिप जाता है.
🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁
अनीता लागुरी "अनु"