शहर के शोर-शराबे से दूर कभी-कभी मन करता है किसी ऐसी जगह चले जाने को जहाँ हवा पर कोई ज़ोर न हो वह उन्मुक्त होकर बहती रहे। खेतों-खलिहानों की पगडंडियों में खरपतवार संग झूम के नाचे। इसी दृश्य की चाह में निकल पड़ी शहर के कोलाहल से बाहर और एक जगह स्कूटी खड़ी करके देखा तो दूर तक सफ़ेद रूई के फाहे-से फैले हुए थे झाड़। लग रहा था मानो सफ़ेद बादल के टुकड़े धरती पर बिखर आये हों। पास जाकर देखा तो वे कांस के फूल थे। कहते हैं कि ये फूल जब धरती पर दिखने लगें तो समझ लो कि वर्षा ऋतु समाप्ति की ओर बढ़ चली है। बस इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने यह कविता लिख डाली...
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शरद ऋतु पर होकर सवार
करने बारिश को विदा
सफ़ेद फूलों की माला पहने
कांस के फूल करें ता-ता थैया।
दिखाकर तीखी बरौनियां
लगे बादलों को डराने,
चिल्लाकर कहा बादलों से
अब हम झूमें ,तुम बिदा लो।
ओढ़ा के धरती को सफ़ेद चादर
मन ही मन ख़ुद पे इठलाया
देख के उसको..वो देखो..!!
पोखरों में कुमुद भी मुस्कुराया।
कहीं खेतों की पगडंडियों में खड़ा
कही बादलों का घेरा बना लिया,
कांस के फूल क्या छाये धरा पर,
रातों में हरसिंगार भी शरमा गया।
धरती पर खिलते हैं जब फूल कांस के
मिलती है चेतावनी बादलों को,
कह गये बड़े बुज़ुर्ग यह बात..!
कांस लहराये तो बादलों की शामत आये..!!
अनीता लागुरी 'अनु'
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