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दूर निकल आई हूँ, सब कुछ छोड़ कर
अब दुआएं बद्दुआऐं मेरा पीछा नहीं करती
लेकिन ना जाने फिर भी क्यूँ
ऐ ज़िंदगी तेरी हर बात से डर लगता है
तेरे दिए हर ज़ख्म
उन जख्मों से रिश्ते दर्द के लावे
और उन जख्मों से इतर खिलखिलाती मेरी हँसी
पल को भूल भी जाऊँ मगर फिर भी
ऐ ज़िदगी तेरी हर बात से डर लगता है
तू कब रुला दे
कब हँसा दे
ना जाने तू कब क्या कर दे
तेरे हर मजाक से डर लगता है
सवालों के घेरे बनाकर
तू तालियाँ बहुत बजाती है
जो निकल भी आउँ छटपटा कर
तू दूजी लिए खड़ी रहती है
ऐ ज़िंदगी तेरे हर किरदार से डर लगता है
चलो माना तू हंसने के मौके भी देती है
मगर समंदर कब कश्तियों को
बिना भिंगोए पार जाने देती है
याद है तुझे
तूने कहा था मुझसे
चल आ सरपट दौड़ लगाते हैं
मैं वही लाइन में खड़ी रह गई
तू जीत करके मुझसे दूर हो गई
ऐ ज़िंदगी तेरी इन चालाकियों से भी डर लगता है
सुकून की तलाश में
छत बनाया था मैंने
टपकती बारिश की बूंदों ने
सर से पाँव तक नहला दिया
तू यकीनन उड़ा ले मजाक मेरा
या गिरा दे रास्तों पर मुझे
पर फिर भी उठ खड़ी होऊंगी
और पूछूंगी तुमसे बस तू हार गया
पर हाँ तेरे चंद सवालों से अब भी डर लगता है
सब कुछ हासिल करने के फेर में
अस्तित्व ने मेरे मुझको नकार दिया
मुस्कुराहटे बनती रही चेहरे में मगर
तुमने वह नकाब भी उतार दिया
कहने को तो
दम भरा करती थी
तेरी चुनौतियों से जिंदगी बदल दूंगी
पर तेरे झमेलों ने लपेटा मुझे ऐसा
रोटी कपड़ा मकान इन्हीं में सिमट गई
ऐ ज़िदगी तेरे हर वार से डर लगता है
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अनीता लागुरी"अनु"