सुलग रहा मानवीय मूल्यों का गठजोड़
लो पैदा हो रहे हैं रक्तबीजों-से
रक्त-पिपासायुक्त मानव चारों ओर
कर लो संरचना पूरी पृथ्वी की
हर देश दहलीज़ पर बैठा है
रक्त-पिपासायुक्त मानव चारों ओर
परिवर्तन ने रचा ऐसा खेल
सुंदर सुकोमल मन में बस गया
दुनियाभर का बैर
करना नहीं चाहता वह तांडव
पर घर कर जाता है
मन-मस्तिष्क में उसके जब
ईर्ष्या और क्रोध का कीड़ा कुलबुलाता है
वो देखो बैठा है रक्त-पिपासायुक्त मानव चारों ओर
जो रक्त की तेज़ धार देखकर
मन ही मन में शैतानी हँसी हँसता है
और अपने ही भ्रमजाल में खुद को लपेटे सोचता है
इंसान नहीं दानव बन रहा हूँ
एक व्यक्ति का रक्त नहीं रक्त की नदियाँ बहाने को तैयार हूँ
इस बदलते दौर में
मनुष्य होने के लिये शर्मिंदा हूँ
ऐसा नहीं है कि अंतरात्मा रोती नहीं है मेरी
सुबकता हूँ गर्भ में पड़े शिशु की तरह
और कलेंडर की तारीख़ों में ढ़ूँढ़ता हूँ वह दिन
जब संवेदनाओं की प्रथम बार तिलांजलि दी थी मैंने
सुकोमल मन में औज़ारों की हरकत हुई थी
किस पर दोषारोपण करुँ? किस पर फोड़ूँ ठीकरा
जल से बुझती नहीं अब प्यास
मैं मानव न जाने कब परिवर्तित हो गया
सारस से बदलकर गिद्ध हो गया
तुम्हारे आक्रमण से पहले
तुम्हारे रक्त को बहाने को तैयार हो गया!!!
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