गुरुवार, 16 जनवरी 2020

उसकी क्या गलती थी..।


.......
 उसकी क्या गलती थी
उसने तो तिरंगा पकड़ रखा था
आखिरी गोली जब सीने में जा धंसी
 जमीन पर वो चित् पड़ा था

 रह रह कर हलक़ से
कुछ चीखे बेलौस लड़ रही थी
 चेहरे में उभरते दर्द के निशां
 और हाथों में उसके सीने से बहता खून भरा था

 क्या गलती थी उसकी
वो तो बस तिरंगा लिए खड़ा था
भीड़ पर चलाई थी ना जाने किसने गोली
वो  मासूम अब भी जमीन पर चित् पड़ा था

 आज ही पहनी थी उसने कुर्ती  नई
झक सफेद रंग , लाल रंग में सन गया
हाथों में लिपटा तिरंगा खुद ही
उसके बदन पर लिपट गया

ना ना करते करते आखिरकार वह
 सिस्टम के अंधकार में
 गोलियों का शिकार बन
एड़ियाँ रगड़ रगड़ कर आखिरकार मर गया

 क्या अब भी यही पूछोगे
 क्या गलती थी उसकी
 वो तो सिर्फ और सिर्फ
 तिरंगा लिए खड़ा था
...................................
अनु🍂🍁🍂🍁🍁

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

थक जाएंगे एक दिन तुम्हारे जुल्म

कब तक दबाओगे चीख़ों को
कब तक दफ़्न करोगे हमें तुम
हर बार उठ खड़े होंगे
चाहे मारकर हमें फेंको तुम


तेरे क़त्ल-ए-आम से
न झुके हैं न झुकेंगे हम
चाहे कर लो
लाख ज़ुल्म-ओ-सितम 


दे दी हमने क़ुर्बानी आज
लहू अपना गिराकर,
तुम एक मारोगे
दस खड़े हो जायेंगे
बाज़ुओं में तुम्हारे

थक जाओगे
ज़ुल्म करते-करते
मगर निशां हमारा 

मिटा न सकोगे

चला लो अपनी लाठियाँ

पूरी ताक़त समेटकर 
कर लो अपनी मंशा का मुज़ाहिरा 
मगर सुन लो तुम भी!
बह चली है हवा इंक़लाब की
तेरे रोके से अब कहाँ रुकनेवाले हैं हम 

बे-शक तुम कर लो अत्याचार
नहा लो हमारे लहू से
तेरी ज़िद है हमें झुकाने की
मगर हमारी भी ज़िद है
तेरी घटिया गंदी चालों को
जमीं-दोज़ करने की

तुम सबने तो दिखा दिया
अपनी मरी हुई आत्मा का घटिया रूप 
इन्तज़ार करो,
जब तेरे ही अपने पूछेंगे तुझसे
तेरी नफ़रतों का सिलसिला कब थमेगा?
जब अपने ही हाथों अपने ही बच्चों को मार डालोगे

पूछता हूँ कुछ तुमसे
यह तालिबानी शासन क्यों
क्या हम आतंकवादी है?

#अनीता लागुरी 'अनु'

सोमवार, 13 जनवरी 2020

किसने कहा..।

अरे चुप..
क्या आप भी ना...!!
किसने कहा.. मैं रोई हुँ...
बिलकुल नहीं....
ये तो एक बर्फ का शिला है।
जो अंदर कहीं सालों से
रिस्ता आ रहा है..!!
जो अक्सर आँखों में कम
पर दिल की गहराईयों में..
ज्यादा पनीला है..!
                              अन्नू🌺🌺🌺


शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

जिजीविषा..जीने की इच्छा में उग आते हैं पेड़ पौधे


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जंगल के बीचोबीच,
पत्थरों की ओट में
उग आया था,जामुन का पौधा
और लगा अंकुरित होने
और फिर बढ़ता रहा
बढ़ता रहा...
विपरीत परिस्थितियों के बीच
और एक दिन बड़ा हो गया।
और लगा फल गिराने धप्प से
पर हम मनुष्य क्यों...?
क्यों घबरा जाते है।
टूट जाते हैं , बिखर जाते हैं
जब परिस्थितियां हमारे अनुकूल नहीं होती
क्यों उस जामुन के पौधे की तरह
खुद में #जिजीविषा समाहित किये ,
जीने का प्रयास हम नही करते ,
मनुष्य होना आसान नहीं..?
🌿🍁🍂🍁🍂🍁🍂
         अनीता लागुरी "अनु"

मंगलवार, 7 जनवरी 2020

चीखें...

....….........
एक बस्ती में
एक चीख उभरी थी,
श्रेणी थी डर...
उसी बस्ती में दोबारा
दो तीन चीखें और उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी निराशा और हताशा
कुछ दिनों बाद
कुछ बड़े समूहों की चीखें उभरी
अबकी उसकी श्रेणी थी एकजुटता
और कुछ समय बाद
कुछ और चीखें दहलीजों के बाहर उभरी थी
अबकी उसकी श्रेणी थी हिम्मत , क्रोध
और अब आजकल
चीखें ही चीखें उभर रहीं हैं,
बिना डरे बिना घबराए
उन  चीखों  ने जुनून का रूप अख्तियार कर लिया है
हक और हुकूक की बातों के लिए
अपने अस्तित्व और अपने मान सम्मान के लिए
उस बस्ती ने अपनी चीखों को हथियार बना लिया
अब उसकी कोई श्रेणी नहीं
अब उसकी कोई भय नहीं
अब चीखें आदोलन करती है
अब चीखे  आवाज कहलाती है
विद्रोह के गीत गुनगुनाती नहीं
मशालें लेकर.. तख्तियाँ पकड़ कर
चीखों को आंदोलनों में तब्दील करती हैं
         🍁🍂🍁अनु लागुरी

मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

दिसंबर की ठंड

(........ इससे पहले कि ठंड खत्म हो जाए एक कविता ठंड पर मैं भी लिख डालती हूँ)
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जला अलाव सब बैठे हैं
बदन को पूरे कैसे ऐठें हैं
सर पर टोपी हाथ में दस्ताने
गरम चाय को चिल्लाते हैं

सूरज भी कंबल लपेटे
घर के अंदर बैठे हैं
कब जाएगी ठंड ये सारी
दिन गिनते रहते हैं

किट किट किट किट दांत है बजते
नहाने को सभी हमें है कहते
कंबल से बाहर ना निकलूँ मैं
नहाना तो दूर पानी भी ना छू लूँ मैं

छत पर आती है थोड़ी सी धूप
गगनचुंबी इमारतों ने रोक ली हर धूप
गांव का खुला अँगना याद आया
जहां धूप और अलाव के खूब मजे हमने पाया

सता ले लाख दिसंबर की ठं
मगर प्यारी लगे उतनी ही यह हमें
हर मौसम का है मजा निराला
ओ मम्मी अब दे दो गरम चाय का प्याला
    अनु🌥️⛄☃️🌧️🌫️

रविवार, 8 दिसंबर 2019

ढीठ बन नागफनी जी उठी!

 nagfani plant के लिए इमेज परिणाम
चित्र गूगल से साभार


मरुस्थल चीत्कार उठा
प्रसव वेदना से कराह उठा 
धूल-धूसरित रेतीली मरूभूमि में
नागफनी का पौधा
ढीठ बन उग उठा

था उसका सफ़र बड़ा कठिन
बादलों ने रहम दिखाया 
उसे कोई उर्वरक मिला 
ज़मीं से नमी का सहारा न मिला 
फिर भी ढीठ नागफनी का पौधा
बेशर्म बन उग उठा

चाहा तो उसने भी था
कि कोई भर लेता उसे भी
प्यार से अंकपाश में अपने
और सहलाता सजाता
केश-लतिकाओं में अपने
मगर वह गुलाब नहीं था

बिडंबना उसकी क़िस्मत की
काँटे थे गुलाब और नागफनी में 
मगर स्वीकारा गया गुलाब
और नागफनी!
यों ही अकेली ढीठ बन
मुस्कुराकर मार्मिक मरुभूमि में 
रह गयी बेकल बेचारी
कह गयी नई परिभाषा वह 
जिजीविषा के आधार की!
मगर जाग जाती थी कभी-कभी
दबी संवेदना उसकी
वह भी रो लेती थी चुपके से
जब तितली मंडराकर उसके ऊपर से
नज़रें फेरकर निकल जाती 
इंतज़ार करती थी शिद्दत से
मगर लोगों की हेय दृष्टि बदल  सकी

तो उसने ख़ुद को ही 
रूपांतरित करने का निश्चय किया 
बन स्वाभिमानी
नागफनी का पौधा 
गरम थपेड़े खाते-खाते
ठंड की मार सहते-सहते 
संघर्षों की गाथा लिखता गया
कभी  मुरझाना
कभी निराश न होना 
ख़ुद को समझाता गया 
अपनी पत्तियों को 
काँटों में रूपांतरितकर 
देहयष्टि को माँसल बना 
सहेजकर जल की बूँदें 
ढीठ बन
धारा के विरुद्ध भी जी गया
अगली बरसात तक 
पानी बचाकर ग़म पी गया 
अरे देखो!
जीवन संगीत का नया राग 
इठलाकर सुना गयी!
वह रेगिस्तान में उग आयी थी 
जीवन संघर्ष-सी एक रागिनी 
मुस्कुरा उठी थी एक नागफनी!

@अनीता लागुरी 'अनु'