रात्रि का दूसरा पहर,
कुछ पेड़ ऊँघ रहे थे
कुछ मेरी तरह
शहर का शोर सुन रहे थे
कि पदचापों की आती लय ताल ने
कानों में मेरे,
पंछियों का क्रंदन उड़ेल दिया.....
तभी देखा अँधेरों में
चमकते दाँतों के बीच,
राक्षसी हँसी से लबरेज़ दानवों को
जो कर रहे थे प्रहार हम पर
काट रहे थे हमारे हाथों को
पैरों को और गले को
चीख़ें हमारी अनसुनी कर.....
धड़ाधड़ प्रहार पर प्रहार कर
आरे के जंगल को काट डाला आरियों से
क्यों हमारे अस्तित्व को
पलभर में नकार दिया
क्यों मुख्यधारा में लाने को
हमें काट दिया.....
विकास उन्नति के लिये
हमारी ही बलि क्यों..?
क्या तुम नही जानते..?
सालों लगते हैं हमें सघन होने में,
यूँ ही एक दिन में बड़े नहीं हो जाते है.!!
सिर्फ़ एक पेड़ नहीं हम
तुम्हारे अंदर की श्वास-गति है..!!
काट जो रहे हो विकास के नाम पर,
साँसों को अपनी ख़ुद बंधक बना रहे हो
आहह....!!!
लो मुझे भी काट दिया..!
अपने ही जल ,जंगल ज़मीन से
अलग किया..!
पर याद रखना विकास के नाम पर
हमारी जड़ों को उखाड़ फेंकने वालो....
साँसों को जब तरसोगे एक दिन
रुदन हमारा याद आएगा..!
( कुछ दिनों पहले मुंबई में मेट्रो सेड के लिए रातों-रात काटे गए ,आरे के जंगल , जहां कई हजारों पेड़ों को रात्रि के मध्य समय में काट दिया गया उसी घटना से प्रेरित होकर ये रचना लिखी मैंने)
#अनीता लागुरी 'अनु'
(चित्र साभार ..google से)