सोमवार, 20 नवंबर 2017

सफ़ेद कोहरे.....

..आ रंग उड़ेल दूँ  
 तुझमें  सभी...!
ये स्याह-सफ़ेदी  
मुझे भाती नहीं ...!

तुझे भी हक़  है,
इंद्रघनुष छूने की .. .!
किसी‌ की मौत तेरी
किस्मत नहीं ..!

इन रश्म-ओ-रिवाज़ों  के
सफ़ेद  कोहरे ..!
मासूमियत को तुम्हारी
ढक  सकते नहीं ..!

ये बिखरे बाल
ये सूनी मांग.......!
ये आँखों से बहती
निर्झर जल की धारा..!

इन बंधनों  की 
क़वायद से आज़ाद 
तुझे करा दूँ ....!
आ माथे पे तेरे  बिंदी लगा दूँ ...!

 ओढ़ा दूँ ....तुझे ये
रंग सुनहरा......!
ये नीली..वो पीली...
वो चूड़ियाँ पहना दूँ ...!

आ उड़ेल दूँ ... 
तुझमें  रंग ये सारे
ये स्याह-सफ़ेदी  मुझे भाती नहीं ..!
#अनु 

चित्र : अनु लागुरी 

रविवार, 19 नवंबर 2017

भारतीय भीड़ तंत्र..(लेख)

भारतीय भीड़ तंत्र ...

       आए दिन आजकल हम सुनते हैं कि भीड़ ने फलाना  व्यक्ति को मार डाला। भीड़ ने छोटी- सी बात पर मासूम की पिटाई कर दी...... या फिर भीड़ ने धर्म के नाम पर झूठ-मूठ का अच्छे खासे माहौल को अव्यवस्थित कर दिया। अक्सर आप भी सुनते होंगे कि भीड़ ने ये किया वो किया पर क्या वहां मौजूद लोगों का हुजूम वाकई में भीड़ होती है  ? संवेदनहीन मरे हुए लोगों का हुजूम .........जो पल भर में अपने अंदर का सारा गुस्सा, कुंठा सब कुछ किसी इंसान पर निकाल देता  है!        
          मैंने इस बारे में काफी हाथ- पैर मारे फिर‌ इस निष्कर्ष  पर आई  कि उस भीड़ में  जो लोग अपने हाथ- पैर चलाते हैं  उनमें कई ऐसे लोग होते हैं...... जो उस दिन अपने घर से झगड़ा करके निकले हों...  ये  कुछ लोग ऐसे भी होते हैं  जिनकी जेबें  ख़ाली  होती हैं  ..........    अपने बच्चे अपने पिता या किसी के लिए दवाइयां या उनकी कोई भी जरूरत इत्यादि पूरी करने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं होते हो...........या कॉलेज यूनिवर्सिटी के वो टॉपर , जो डिग्रियां का टोटा अपने बगल में बांधे कंपनियों के चक्कर लगाया करते हैं।   और हर जगह से उन्हें निराशा मिलती है । ये सभी ज्यादातर बस स्टॉप ,चाय वाले की दुकान, या ठेले पर बैठे मिल जायेंगे..... इनमें  से ऐसे कई लोग होते हैं जो अपनी पारिवारिक परेशानियों से घिरे होते है  और ऐसे भी लोग होते हैं जिन्होंने सुबह से शायद  कुछ ना खाया हो या जिनके बॉस ने सरेआम उन्हें डांटा..हो.  दरअसल भीड़ इन सबका एक मिक्सर होता है । उनके अंदर की मानसिकता भले ही ना दिखे लेकिन जब वे  किसी को पीटते हैं तो यकीनन उनके अंदर यही चलता है कि हां ये मेरा बॉस है , ये वो पैसे हैं  जो मैं आज कमा नहीं पाया ........क्या ये मेरी रोटी है, जो मैं आज खा नहीं पाया।  सबके अंदर चलने वाला एक परेशानियों कुंठाओं का एक झंझावात होता है । यह  भीड़ वो भले ही सड़क पर किसी घायल व्यक्ति को अस्पताल न पहुंचाएं या किसी मजबूर की मदद न करे  परंतु जब सवाल किसी को पीटने का आता है तो न  जाने कहां से Superman वाली ताकत आ जाती है .........और ये लोग बस शुरू हो जाते हैं अपने अंदर का frustration निकालने को।   उस भीड़ के अंदर का मानसिक अंतर्द्वंद जो मौका पड़ने पर किसी इंसान की गलती पर उबल पड़ता है ।............. और वह बेचारा इंसान बेमौत मारा जाता है या बुरी तरह घायल हो जाता है ..........इसलिए किसी भीड़ के पल्ले नहीं पढ़ना चाहिए।  अपना प्रयास होना चाहिए कि अगर आप ऐसे किसी मुसीबत में पड़ रहे हैं तब   यह आपकी गलती भारी पड़ सकती है। ..........तो प्रयास कीजिए कि आप वहां से जितनी जल्दी हो सके दूर हट जाएँ  क्योंकि अब इंसानों की शकल में भेड़िये घूमते हैं । ये सरे-आम कत्ल भी कर सकते हैं। सरेआम आपकी इज्जत भी लूट सकते हैं ! क्योंकि वो जानते हैं वो एक भीड़ हैं  कोई एक इंसान नहीं।  हर मारने वाला कौन है नहीं  पता..!..............मतलब ये कुछ भी कर सकते हैं । इस भीड़ का कोई धर्म, कोई ईमान नहीं  होता है. दर असल ये होते हैं सिर्फ कुछ लबादा ओढ़े इंसानी शक्ल और इनके अंदर क्या है..! यह क्या चल रहा है ।
शायद ही  किसी को समझ आए.....!
अनु

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

अधखुली खिड़की से...

अधखुली खिड़की से,
धुएं के बादल निकल आए,
संग साथ में  सोंधी रोटी की
ख़ुशबू भी ले आए,                            
सुलगती अंगीठी
 और अम्मा का धुआँ-धुआँ
  होता मन..!
कभी फुकनी की फूं-फूं
तो कभी अंगना में
नाचती गौरैया ...ता-ता थईया..!
बांधे ख़ुशबुओं की पोटली
सूरज  भी सर पर चढ़  आया..!
जब अम्मा ने सेकीं रोटियां तवे पर...!
नवम्बर का सर्द सवेरा भी
 ख़ुद पे शरमाया....!
जब अधखुली खिड़की से....धुएं
का बादल निकल आया....!
 #अनु

चित्र साभार - गूगल 

गुरुवार, 16 नवंबर 2017

काश...कोई दे जाता...!

एक शोर ह्रदय को झंकृत करता,
मौन-मौन मनुहार ........रचाता। 

एक  दिया  मुंडेर  पर  जलता ,
नज़्म-नज़्म  संगीत  बजाता। 

एक इंतज़ार टिक-टिक सुनाता,
देख के तुमको नंगे पैर धूल लगाता। 

एक बादल कभी  ज़रा-सा  गुस्साता,
हथेलियों में मेरी कुछ बूँदें रख  जाता। 

एक एहसास तल्ख़ी का तुम्हारा,
आँखों में  मेरी आँसू  दे जाता। 

एक शोर, एक दिया,एक इंतज़ार,
हर पृष्ठ  में  जीवन का राग उकेरता। 

#अनु

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

तुलना... तुम्हारे पौरूष से...

तुम चार थे,
मैं एक थी.....!
तुम हैवान थे,
मैं मासूम थी...!
तुम बलवान थे,
मैं लाचार थी....!
तुम कायर दरिंदे थे,
मैं निरीह पशु थी...!
वो तुम्हारी जश्न की रात थी,
मेरी ज़िन्दगी  में 
लगी बदनुमा दाग थी...!
       क्यों .....?
तुम पुरुष थे...?
मैं एक स्त्री थी...।
#अनु 

सोमवार, 13 नवंबर 2017

तुम कवि हो...पर मै.......!

तुम कवि हो ना,

शब्दों  को आकार


देते हो,


मैं  एक कड़वा  सच  हूँ 

सच को नंगा करना 


मेरी  आत्मसंतुष्टि  है ।


तुम्हारे  विचारों के प्रबल वेग का 

कोई छोर नहीं ।

और मैं ...... गंतव्य का भटका राही,


तलाश-ए- मंज़िल  की दौड़ में 


गुमनाम बना फिरता हूँ ...


तुम्हारी  कल्पनाऐं 

अंतहीन हैं ।


मैं  दर्द को सीता हूँ ...!


उसकी चुभन से ,


ख़ुद की कहानियां


लिखता हूँ .…!


तुम लेते हो सहारा क़लम  का

मेरी तो आँखें  पनीली होती हैं ,


होगे तुम कवि कहीं के


मैं  बस मैं  हूँ .......!


कल्पनाओं से परे...!


जीता हूँ  संग  बिडम्बनाओं  के

मरता हूँ  संग वर्तमान के...!


एक यथार्थवादी....!

#अनु

रविवार, 12 नवंबर 2017

चाय की चुस्कियां संग जिंदगी के.......

Hot Tea..


ज़िन्दगी  ने फिर से 
बनी बनाई चाय
उड़ेल दी कप में  मेरे ,
चाहे चाय ,
बेस्वाद ही क्यों  न बनी हो।
हर बार की तरह
अपनी परेशानियों  में  लिपटी ,
वो पास आ जाती  है 
और मुझसे  कहती  है 
छोड़े जा रही  हूँ ,
तकिये के नीचे तुम्हारी 
कुछ तकलीफ़ों  की गठ्ठरी,
संभाल लेना हर बार की तरह 
और  लगा प्यार से,
चपत गालों  पे  मेरी...!
छोड़े जाती है  
उन तकलीफ़ों  के साथ
जो रोज़  परत-दर-परत 
मुझमें  प्रहार करती हैं ।
और मेरे टूटकर बिखरने का 
इंतज़ार भी
बिना चीनी की  
बेस्वाद  चाय की तरह.....!!!
#अनु
(  चित्र साभार गुगल)