सोमवार, 16 अप्रैल 2018

ख़ामोश मौतें!!

बस्तियां- दर- बस्तियां
      हुईं  ख़ामोश ,
ये फ़ज़ाओं  में कोन-सा
      ज़हर घुल गया..!!
जहां तक जाती हैं
      नज़रें मेरी..!
वहां तक लाशों का
   शहर बस गया..!!
इन सांसों में कैसी,
     घुटन है छाई,
मौत से वाबस्ता
हर बार कर गया...!!
ये कैसी ज़िद है,
         तुम्हारी
ये कैसा जुनून है
        तुम्हारा..!
कि मुकद्दर में मेरे
सौ ज़ख़्म  लिख गया..!!!
तुम भी इंसां  हो
मैं भी इंसां  हूँ ,
फिर भला मेरी मौत
तुम्हें है...क्यों  प्यारी....??
   कभी देखा है?
मासूम हाथों में..!!
बहते लाल रंग को!!
जिह्वा निकल रही ,
उबलती आंखों को,
  कतारों में
लेटी अनगिनत लाशों को,
कफ़न भी मयय्सर न
होने वाले मंज़र  को...!!
वो ऊपर बैठा 
वो भी यही सोच रहा होगा
कब इंसानो को मैंने
राक्षस बना दिया..!!!
 #अनीता लागुरी(अनु)

गुरुवार, 29 मार्च 2018

भ्रम के सिक्के

आज फिर वो एक
भ्रम को पाले उठेगा
उठा के गमछा,कुदाल
पी के सत्तु का घोल
चल देगा सड़क की ओर
और‌ लगेगा ताकने,
उस ओर , जहां आते हैं
लोग मज़दूरों को चुनने,
शायद उसकी,
बेबसी पसंद आ जाए किसी को,
और ले चले उसे,
कंक्रीट के शहरों में,
जोतने उसका खेत,
और शाम ढले उसे मिलते हैं ,
कुछ सिक्को में समाए हुए
उसके भ्रम,
ओढ़कर  अपनी पसलियों को
एक मरी मुस्कान के साथ
थमा   वो चंद सिक्के,
अपनी बीवी  की हथेलियों में
और‌ कहता है,
ले के आ जुगाड़,
वो भी दौड़ पड़ती  है,
उठा के थैला,
भ्रम के चंद सपने खरीदने,
ये कहानी है,
एक आम मज़दूर की,
व्यवस्था के ढ़ेर पर
बैठे परिवर्तन की प्रतीछा करते,
दिग्भ्रमित सपनों की,
जिन्हें सिर्फ़  आता है,
अनाज के चंद दाने उगाना
वरना गमछे में ही,
उन्हें जीवन  का सारा सच
निचोड़ना आता है।
  #अनीता लागुरी (अनु)

शुक्रवार, 9 मार्च 2018

मेरे शब्दों की ..मुखरता।।

मैं एक अदना सा लेखक हुं,
लिखता वहीं हुं जो
मन को बींध जाता है,
स्पष्ट, अस्पष्ट की संज्ञा
से परे
मन के विस्मृत भावों
को संवेदनाओं से
उकेरता चला जाता हुं
मन के कोरे कागज में
जब दर्द की चीख
निकलती है
और धुटन से जिह्वा
बाहर आती हैं
तब आत्मा शोर मचाती है
और मैं एक अदना सा लेखक
लिख डालता हूं
खुद की आत्मसंतुष्टि के लिए
भाव आविभाव की
पोथी लेकर।
तत्पर...ये नहीं सोचता कि
प्रभाव क्या है इसका
क्या तुम समझोगे,
रखोगे राय क्या अपनी
बस लिखता चला  जाता हूं,
अपनी कलम को,
अपनी पराजय की हार में
डुबा ,
जीत में बदलने की कोशिश में
इतिहास लिखने बैठ जाता हूं।

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

कश्मकश ...!

हर शाख़ पर उल्लू बैठा है

हर शख़्स  यहां कीचड़ से मैला है
क्या रंग क्या गुलाल खेलूं
हर चमन में शातिर शागिर्द बैठा है

तुम बात करते हो मकानों की

यहां हर घर बेज़ुबानों से दहला है
पंख लगाकर क्या उड़े चिड़िया
हर सैय्यद  पंख कतरने   बैठा है

जिस्म में थरथराहट मौजूद भी है

मेरे हाथों में कांपते मेरे सपने भी हैं ...!
कुछ कहने को उतावला  मेरा मन भी है
हाँ  वो गोले आग के,मेरे अंदर भी हैं ।
# अनीता लागुरी (अनु)

शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

प्रश्न,...!!

प्रश्न तो बस प्रश्न होते हैं,
तीखे से ,मीठे से,कुछ उलझे से
कुछ जज्बाती से,
तो कुछ हमेशा की तरह अनुत्तरित से।
यहां कुछ प्रश्न..?
मैंने भी पुछा ,
मां से अपनी...?
क्यो लड़के की चाह में,
मुझे अजन्मे ही मारने चली..?
क्यों छठे माह तक,
बिना किसी भय के ,
सींचती रही रक्त से अपने..!
सुनाती रही लोरी,
और सहलाती रही
उदर को अपने...!!
हर बीतते पल के साथ,
मुझ खुन के टुकड़े को
नख, शिख ,दंत से क्यों
सांवारती रही...?
और करती रही मजबूत
रिश्ता हमारा,
फिर ऐसा क्या हुआ,
मां....?
किसने तुझे कमजोर बनायां
किसने तुझे कहा,
लड़के ही वंश बड़ाते है,
ये मुई लड़कियां तो बस बोझ होती है।
एक बार आने तो दिया होता,
दुनिया में तुम्हारी,
पर ....!
तु इतना भी ना कर सकी,
मेरी मां,
लड़ जाती मेरी खातिर सबसे
और रख ये प्रश्न....!
पुछती सबसे...!
क्या हुआ जो गर ये
लड़की है...!
है तो मेरा ही अंश..
मैं लाउंगी इसे
इस दुनिया में..!
इसे जीने का अधिकार
मैं दुंगी..!
पर तुने नहीं कहा,
और छोड़ दिया मुझे अकेला।
और मैं बिना जन्मे ही
चल दी , तुम्हारी दुनिया से दुर..!
और आज मौका मिला तो
मैंने भी पुछ लिया ये
प्रश्न ..!
ना जाने फिर कभी
मौका मिले या नहीं,
इस अजन्मे बच्चे को
तुमसे संवाद का ...?
..

बुधवार, 21 फ़रवरी 2018


कैद ख्यालो की,

ये जो कैद है ,
तुम्हारे ख्यालो की,
तुम्हारे अनगिनत स्पर्शो  की...!
मेरे अधरो पर अंकित
तुम्हारे प्रणय निवेदन की
चाहुं भी ,
कहकशो से तुम्हारी,
रुह को मेरी,
आजाद नहीं कर सकती।
बांधी है गांठ
तेरी यादों की मेरे ख्यालों की डोर से।
,
          अनु 