गुरुवार, 29 मार्च 2018

भ्रम के सिक्के

आज फिर वो एक
भ्रम को पाले उठेगा
उठा के गमछा,कुदाल
पी के सत्तु का घोल
चल देगा सड़क की ओर
और‌ लगेगा ताकने,
उस ओर , जहां आते हैं
लोग मज़दूरों को चुनने,
शायद उसकी,
बेबसी पसंद आ जाए किसी को,
और ले चले उसे,
कंक्रीट के शहरों में,
जोतने उसका खेत,
और शाम ढले उसे मिलते हैं ,
कुछ सिक्को में समाए हुए
उसके भ्रम,
ओढ़कर  अपनी पसलियों को
एक मरी मुस्कान के साथ
थमा   वो चंद सिक्के,
अपनी बीवी  की हथेलियों में
और‌ कहता है,
ले के आ जुगाड़,
वो भी दौड़ पड़ती  है,
उठा के थैला,
भ्रम के चंद सपने खरीदने,
ये कहानी है,
एक आम मज़दूर की,
व्यवस्था के ढ़ेर पर
बैठे परिवर्तन की प्रतीछा करते,
दिग्भ्रमित सपनों की,
जिन्हें सिर्फ़  आता है,
अनाज के चंद दाने उगाना
वरना गमछे में ही,
उन्हें जीवन  का सारा सच
निचोड़ना आता है।
  #अनीता लागुरी (अनु)

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (05-02-2020) को    "आया ऋतुराज बसंत"   (चर्चा अंक - 3602)    पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. बेहतरीन सृजन अनु जी ,सादर स्नेह

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