हर शाख़ पर उल्लू बैठा है
हर शख़्स यहां कीचड़ से मैला है
क्या रंग क्या गुलाल खेलूं
हर चमन में शातिर शागिर्द बैठा है
तुम बात करते हो मकानों की
यहां हर घर बेज़ुबानों से दहला है
पंख लगाकर क्या उड़े चिड़िया
हर सैय्यद पंख कतरने बैठा है
जिस्म में थरथराहट मौजूद भी है
मेरे हाथों में कांपते मेरे सपने भी हैं ...!
कुछ कहने को उतावला मेरा मन भी है
हाँ वो गोले आग के,मेरे अंदर भी हैं ।
# अनीता लागुरी (अनु)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
रचना पर अपनी प्रतिक्रिया के ज़रिये अपने विचार व्यक्त करने के लिये अपनी टिप्पणी लिखिए।