मंगलवार, 29 अक्टूबर 2019

कांस के फूल


शहर के शोर-शराबे से दूर कभी-कभी मन करता है किसी ऐसी जगह चले जाने को जहाँ हवा पर कोई ज़ोर  न हो वह उन्मुक्त होकर बहती रहे। खेतों-खलिहानों की पगडंडियों में खरपतवार संग  झूम के नाचे। इसी दृश्य की चाह में निकल पड़ी शहर के कोलाहल से बाहर और एक जगह स्कूटी खड़ी करके देखा तो दूर तक सफ़ेद रूई के फाहे-से  फैले हुए थे झाड़। लग रहा था मानो सफ़ेद बादल के टुकड़े धरती पर बिखर आये हों। पास जाकर देखा तो वे कांस के फूल थे। कहते हैं कि ये फूल जब धरती पर दिखने लगें तो समझ लो कि वर्षा ऋतु समाप्ति की ओर बढ़ चली है। बस इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने यह कविता लिख डाली...
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शरद ऋतु पर होकर सवार
करने बारिश को विदा
सफ़ेद फूलों की माला पहने
कांस के फूल करें ता-ता थैया। 

दिखाकर तीखी बरौनियां
लगे बादलों को डराने,
चिल्लाकर कहा बादलों से
अब हम झूमें ,तुम बिदा लो। 

ओढ़ा के धरती को सफ़ेद चादर
मन ही मन ख़ुद पे इठलाया
देख के उसको..वो देखो..!!
पोखरों में कुमुद भी मुस्कुराया। 

कहीं खेतों की पगडंडियों में खड़ा
कही बादलों का घेरा बना लिया,
कांस के फूल क्या छाये धरा पर,
रातों में हरसिंगार भी शरमा गया। 

धरती पर खिलते हैं जब फूल कांस के
मिलती है चेतावनी बादलों को,
कह गये बड़े बुज़ुर्ग यह बात..!
कांस लहराये तो बादलों की शामत आये..!!
   अनीता लागुरी 'अनु' 
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सोमवार, 28 अक्टूबर 2019

उसकी उदासियां..,!!


उसकी उदासियों में
झलकती थी
अमावस्या-सी
गहन रात..!!

उसकी उदासियों में
दफ़न थे
ज़िंदगी से
जुड़े सवाल.!!

उसकी उदासियों में
  परछाई थी
आईने से
  लेकर किरदार.!!

उसकी उदासियों में
ज़ुबान थी
ख़ामोशी से
चंद सवाल।

उसकी उदासियों में
रंगहीन थी
बिस्तर से
उभरती सिलवटें।

उसकी उदासियों में
जज़्ब थे
कहाँनियों से
बने किरदार।

उसकी उदासियाँ
उसका हमसाया थी
वह तन्हा रही
अपनी ही ज़िंदगी में
एक चरित्र बनकर..!

@अनीता लागुरी 'अनु'


शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

आ अब लौट चलें...!!



ग़रीबी की चादर ओढ़े
बड़े हुए हैं मित्र...!
ग़रीबी या ग़ुर्बत क्या होती है... ?
शायद तुम न समझ सको..!
          वो दिन भी देखे हैं मैंने..!
          जब रोटी मांगने पर,
माँ एक बना-बनाया झूठ बोल दिया करती थी..
           "अब्बा गये हैं बाज़ार
            पूरी-पुवे लेने....!"
रुक ज़रा..... काहे की जल्दी मचा रखी है तुमने
पर वो भी जाने, मैं भी जानूँ ..!
अब्बा दूर कहीं छिपकर...!
हमारे सोने का इंतज़ार किया करते थे
      जानते थे आज भी काम नहीं मिलेगा उन्हें,
पावर का चश्मा जो टूट गया था उनका
     पर देख आज मेरी क़िस्मत
ये जो हमने पहन रखा है ....!
'रेब्बान' का  ब्रांडेड सन-ग्लासेस का  चश्मा ...!
  इस चश्मे के भीतर देखो
सपने लिये हज़ार बड़े हुए थे हम
         चला जाता था बस्ता उठाये...!
          स्कूल के दरवाज़े तक..!
         पर कभी कहा नहीं अम्मा से
वो अंदर  जाने  ही नहीं देते थे!
ये जो भरा हुआ है न बटुवा मेरा
    सौ-हज़ार के करारे नोटों से
कभी ऐसा भी दिन था मित्र!
मात्र दस रुपये के लिये मैंने
अलस्सुब्ह उठकर
घर-घर जाकर अख़बार भी बाँटे थे मैंने,
           आज जहाँ खड़ी की है ना मैंने कार...!
          यार मेरे बस वहीं पर मैंने थप्पड़ खाया था एक रोज़ ...!
          ग़लती क्या थी मेरी बस इतनी
         स्टैंड लगी साइकिल पर चढ़ बैठा
वो दर्द तो यक़ीनन चला गया..!
पर अब भी पड़ोसियों के हँसने का दर्द मेरे कानों को भेदता है
  कब तक खड़ा रहेगा...!
ला वो  खाट खींच ला..!
मैं पलटी मार नीचे बैठ जाऊँगा
  अरे मेरी मत सोच
   ज़मीन की पैदाइश हूँ
इस माटी का रंग जानता हूँ मैं
इन कपड़ों का क्या है...!
मैं तो बारहवीं तक निकर पहनकर घूमता-फिरता था...!
      कुछ नहीं बदला है यह घर और यह आँगन...!
      और ये टूटी चप्पलें वर्षों पुरानी...!
     सब मुँह बाये मुझे चिढ़ा रहे हैं
       शहर का वो महल मेरा...!
        और ये मेरे बचपन का गलियारा..!
क्या बदला?
 बस यही बदला ना..!
न अम्मा अब खाँसती हुई दिखती है
और न बापू  बड़बड़ाते हुए  दिखते हैं...!
     चल अब यादों के झरोखे से बाहर निकलते हैं..!
      चलो आज  उस बेरी के बेर फिर तोड़ता हूँ
उन शहरी सेवों में वो स्वाद  कहाँ
         जो इस छोटे-से जंगली बेर में है
जो आज भी बच्चों को आसानी से मयस्सर हैं 
      बस यही था मेरा बचपन
      जो मैं तुझे दिखाने ले आया..!
      मिट्टी का घर खप्परों की छत
और छत से आती धूप सुनहरी...!
और सोंधी-सी यह माटी की ख़ुशबू
      अब रो दूँगा मैं अगर पल को और रुका तो,
       चल ड्राइवर को बोल अब
 वो गाड़ी निकाले..!
      कुछ यादों को दफ़्न करके ही 
आगे बढ़ जाना ज़िन्दगी कहलाती है..!

@अनीता लागुरी 'अनु'
              


रविवार, 20 अक्टूबर 2019

सूरज संग संवाद..!!

हाँ पहली बार देखा था सूरज को
सिसकते हुए...!!
दंभ से भरे लाल गोलाकार वृत्त में
सालों से अकेले खड़े हुए..!!
हमारे कोसे जाने की अवधि में
स्थिर वो सुनता रहा है सब कुछ
उसकी भी संवेदनाएँ ...!
प्रभाव छोड़ती है..!!                                        
जब वो आग के गोलों में तब्दील,
अपनी मारक शक्तियों का प्रयोग करता है
धरती जलती है ..!!
उसके  क्रोध के सामने,
पशु ,पक्षी ,इंसान  रहम मांगते हैं..!!
जब वो अपने अंदर की आग को,
बाहर उबालकर रख देता है                                  
ऐसा प्रतीत होता है..!!
उसे भी संवाद प्रिय होगा,
 किसी के  सानिध्य को
 तरसता..
सदियों से अकेले खड़े होकर जलने की
सजा से व्याकुल..!
वो भी कितना कराहता होगा,
मिन्नतें दरख़्वास्त सारी उसकी
जल गयीं होंगीं ख़ुद की उसकी आग में
क्या वो अभिशप्त है...?
यों सदियों से अब तक जलते रहना..
उसकी नियति में लिखा भयानक सच है..!

#अनीता लागुरी "अनु"


रविवार, 13 अक्टूबर 2019

मैं जानता हूँ,

            मैं जानता हूँ,
     एक दिन मैं गिर पडूँगा,
 मेरे घुटने शायद छिल जाएँ  तब,
शायद तब पीछे मुड़कर देखूँगा,
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों से गुज़रती...
अपने जीवन के साठवें  साल को,
जहाँ खोने के लिए अब  कुछ भी नहीं,         
कुछ यादों को बेशक संभालना चाहता हूँ
 जब जीवन में बसंत का साम्राज्य था,
 पता ही नहीं चला...!!
जीवन रूपी नाव ने कब गति पकड़ी,
 भंवरों से उभरता हुआ..
अनंत की ओर बेसबब बढ़ता रहा हूँ मैं.. .!!
अब क्या कहूँ... जीवन का गणित,
वर्गाकार से गोलाकार में परिवर्तित हो चुका है...!!
 शून्य की परिकल्पना न चाहते हुए भी,
जमे हुए घुटनों में दर्द जोड़ देती है...!!

 #अनीता लागुरी "अनु"

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2019

धूमिल होते गए बापूजी..!!

जलते रहे तुम रात भर
🌿🍁🍂🍁🍂🍁🍂
 जलते रहे तुम रात भर,
राख होते रहे तुम रात भर,
 अग्नि में भस्म होते हुए
देखता मैं,रहा तुम्हें ,रात भर

  आँसू महीनों तक ना सूखे।
चरखा भी घूमता रहा अनवरत
सत्य और अहिंसा के तागे से,
बुन ली आज़ादी की ताबीर...!

  बेशक आवाज़ ना थी तेरी लाठी में
 पर उसकी खामोश ताकत ने,
 लहर ऐसी बनाई...!!!
की दांडी से छिटका नमक,
अंग्रेजो के भोजन को बेस्वाद कर गया,

तू फिरता रहा एक कपड़े में
करता रहा बातें अहिंसा की
 बिना एक भी रक्त गिराए
आजादी का मार्ग किया प्रशस्त तूने,

लांछन लाख लगे तुझ पर....
 किरकिरी तु बन गया आंखों की,
 फिर भी तटस्थ खड़ा रहा.तु,
बनकर अंधा ,बहरा और गूंगा..!!

लेकिन ये नौजवान पीढ़ी क्या जाने,
 दे रहे हैं तुझ को जो  आज गाली
 सत्य अहिंसा के बल पर
 अंग्रेजों ने मुंह की खाई थी...!

हां कहीं  बहे थे खून जरूर
और कहीं चली थी मुख की कोमल वाणी,
पर नासमझो ऐसे ही कुछ पाई थी, हमने आजादी
 कहीं पर गिरा था रक्त तो....
किसी ने मारी थी सीने में गोली..!!

 चिता की राख तो ठंडी हो गई
पर .फजाओं में ये कौन सा जहर घुल गया..!
 हर दूसरा शख्स घुट रहा यहाँ,
न जाने ये कैसा हिंदुस्तान बन गया...?
 गांधी गांधी ना रहे
 अब बापू ना कहे कोई ..?
 टूट गई उनकी वो लाठी..!
अहिंसा के बल पर जो चलती थी,

 है नमन बापूजी तुझको,
 कभी तो वापस आएंगे..!!
वक्त रहा ना कभी किसी का
 ये जहर भी उड़ जाएगा...!!
धूमिल हो रही तेरे विचारों पर
एक नया सूरज फिर से उग आएगा
...🍁🍂🍁🍂🍁??????
         #अनु

प्रश्न..!!

प्रश्न तो बस प्रश्न होते हैं,
तीखे से ,मीठे से,कुछ उलझे से
कुछ जज्बाती से,
तो कुछ हमेशा की तरह अनुत्तरित से।
यहां कुछ प्रश्न..?
मैंने भी पुछा ,
मां से अपनी...?
क्यो लड़के की चाह में,
मुझे अजन्मे ही मारने चली..?
क्यों छठे माह तक,
बिना किसी भय के ,
सींचती रही रक्त से अपने..!
सुनाती रही लोरी,
और सहलाती रही
उदर को अपने...!!
हर बीतते पल के साथ,
मुझ खुन के टुकड़े को
नख, शिख ,दंत से क्यों
सांवारती रही...?
और करती रही मजबूत
रिश्ता हमारा,
फिर ऐसा क्या हुआ,
मां....?
किसने तुझे कमजोर बनायां
किसने तुझे कहा,
लड़के ही वंश बड़ाते है,
ये मुई लड़कियां तो बस बोझ होती है।
एक बार आने तो दिया होता,
दुनिया में तुम्हारी,
पर ....!
तु इतना भी ना कर सकी,
मेरी मां,
लड़ जाती मेरी खातिर सबसे
और रख ये प्रश्न....!
पुछती सबसे...!
क्या हुआ जो गर ये
लड़की है...!
है तो मेरा ही अंश..
मैं लाउंगी इसे
इस दुनिया में..!
इसे जीने का अधिकार
मैं दुंगी..!
पर तुने नहीं कहा,
और छोड़ दिया मुझे अकेला।
और मैं बिना जन्मे ही
चल दी , तुम्हारी दुनिया से दुर..!
और आज मौका मिला तो
मैंने भी पुछ लिया ये
प्रश्न ..!
ना जाने फिर कभी
मौका मिले या नहीं,
इस अजन्मे बच्चे को
तुमसे संवाद का ...