शनिवार, 13 जनवरी 2018

जब जला आती हूँ अलाव कहीं...



ये मन

धूं-धूं जलता है 

जब ये मन

तन से रिसते 

ज़ख़्मों के तरल

ओढ़ के गमों के

अनगिनत घाव 

जब जला आती हूँ 

अलाव कहीं

धीमी-धीमी आंच पर

सुलगता है ये मन

उन सपनों की मानिंद

जो आँखें यों  ही

देखती हैं  मेरी

अनगिनत रतजगी

रातों को

ये धूं-धूं  जलता 

ये मेरा मन

पिघलता है 

मोमबत्ती-सा

और यों  ही

गर्म हो उठता है

उस अलाव-सा
,
जिसे छोड़ आई 

थी कहीं..

उस अकेले चांद संग...!



# अनीता लागुरी (अनु)

मंगलवार, 9 जनवरी 2018

यह मेरी हार है....

            (जीवन पथ पर बढ़ते रहने की सीख देता एक भाई..)




रुक जाओ
मत भागो
मैं नहीं थोपूँगा 
अपनी पराजय तुम पर
यह  मेरी हार है।

मेरे सपनों की 
दम तोड़ती
अट्टालिकाओं के 
ज़मी-दोज़ होने की हार है।

गर कठघरे में खड़ा होगा कोई
तो वो मैं होऊँगा
सादियों से जलता रहा हूँ  मैं
आज भी जलते सूरज का 
तीक्ष्ण प्रहार मैं ही झेलूँगा। 

मेरे भाई... 
कुछ पल ठहर जाओ
सहने को.....  मरने को..... 
कोई एक ही मरेगा
और वो मैं होऊँगा।

इन बची हुई स्मृतियों से
ढक देना ख़ुद  को
और‌ जब 
अंत होगा ज़मीं का
दौड़कर  चढ़ जाना
पश्चिम की ओर
और वापस आकर 
माँ की गोद में 
सर रख कर
सांसों को धीमा करना..!

इन स्मृतियों को वहीं कहीं
कूड़ेदान में डालकर चल देना
बस चलते ही जाना
ये मेरी पराजय 
मैं नहीं थोपूंगा  तुम पर
ये मेरे लिखे शब्दों की हार है
वर्षों से है शापित जीवन  मेरा
आज दफ़न भी हो जाए  तो क्या  ग़म है......?
#अनीता लागुरी (अनु)


सोमवार, 8 जनवरी 2018

उतरन...


दीदी!
क्या गलती थी मेरी
पूछना चाहती हूँ आज
जन्म तुम्हारे बाद हुआ
इसमें मेरा क्या कसूर

बाबा की अँगुली
थामी  तुमने  
तुम्हारी मैंने
हर चीज़ तुम्हारे बाद मिली मुझे
किताबें तुम्हारी
क़लमें तुम्हारी
बस जिल्द  नयी लगा दी जाती
किताबों पर 
तुम्हारे कपड़ों
पर बस गोटें  नई टांक दी जातीं 
झिलमिल वाली
ताकि बालसुलभ मन मेरा
उलझा रहे
रंगीन गोटों की चमक में
खिलौने तुम्हारे
यहां तक कि कभी-कभी
थाली में बची सब्ज़ी
तक तुम डाल दिया करती थी
उफ़ तक करती
क्योंकि स्नेह की अटूट डोर थी दिल में
पर क्यों......?
सुहाग को अपने 
बांध रही हो 

संग मेरे 

ये ना कोई पुरानी किताब है

ना कोई गोटे वाली फ्रॉक 
ये तो ज़िन्दगी है 
दीदी मेरी, यहां भी मिलेगी क्या .....उतरन तुम्हारी...!!!
सजेगी मेरी मांग की लाली
अब तुम्हारे ही सिंदूर से
अपनी शादी का जो जोड़ा
सहेज रखा है तुमने 
उसे  पहनकर  कैसे बैठूँ
मंडप में  संग जीजू  के...... 
साथ लिए फेरों का
सात  वचनों का 
सात जन्म का 
रिश्ता......
तुम तोड़ के कैसे
मुझे जोड़ चलीं 
मैं कठपुतली नहीं
हाथों की तुम्हारी
तक़दीर अपनी लायी हूँ 
माना क़ुदरत ने 
रची साज़िशें आपके साथ 
घर-आंगन की किलकारी  
दी आपके हक़ में
पर मैं ही क्यों  दी.... 
माना हूँ  मैं
छोटी बहना
पर ये उतरन मुझे देना......!!!
# अनीता लागुरी (अनु)

चित्र साभार : गूगल 


गुरुवार, 4 जनवरी 2018

तुम्हारे प्यार में.....

हां तुम्हारे प्यार में डूबा मैं
उस चांद से पूछ बैठता हूँ
क्या तुम्हें नींद नहीं आती
यों  टकटकी लगाए,
क्या देखते हो
या रातों को जागने की
आदत हो  गई
मेरी  तरह..?
या तुम भी कर बैठे प्यार किसी से?
क्या करुं
सर्दी में मुँह से निकलते धुंए को
हवाओं में उड़ाता चला हूँ मैं 

जानता हूँ मैं 
ये  धुआँ नहीं भ्रम है  मेरा
पर फिर भी इस दिल को 

समझाऊँ  कैसे
जो तुम्हारे न होने के अहसास को
पुख़्ता  सबूत बनाता है
जो मेरे  क़दमों को थाम 

आगे बढ़ने से रोक देता है
हाँ सिर्फ़  तुम्हारे प्यार में
बावरा बन.. घूम आता  हूँ
गलियों में , चौराहों पर ...
तो कभी यादों की पगडंडियों पर
थामे हाथ तुम्हारा चल पड़ता  हूँ
उस अनंत क्षितिज की ओर
उस लाल रक्तिम आभा से युक्त
सूरज को छूने
तो कभी तुम्हारी धड़कनों की
धक-धक को सुन उसकी लय में
ख़ुद  को तलाशता
अंजाने ही अर्थविहीन चल पड़ता हूँ
तो कभी छत पर सूखता
तुम्हारा वो नीला-नारंगी दुपट्टा अलबेला
और उससे आती तुम्हारे बदन की वो ख़ुशबू ...!
उसे ढूंढ़ता  न जाने कहां चल पड़ता हूँ  मैं
हां तुम्हारे प्यार में.!
न जाने क्यों
पाबंदियां की परिभाषा भूल गया हूँ
मौसम के चढ़ने-उतरने का 

राग भूल गया हूँ
नभ में उड़ते पंछियों की आज़ादी
भूल गया हूँ मैं 

हाँ  तुम्हारे प्यार में
सुर्ख़ मख़मली एहसासों की नुमाइश कर चला हूँ
समेट लो अपने बाहों में.....
वरना ....न जाने क्या से 
क्या चला हूँ  मैं...!!!
#अनीता लागुरी (अनु)
                  

रविवार, 31 दिसंबर 2017

""नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं मित्रों

कुछ घंटो में नया साल आंरभ हो जायेगा, बीते साल  की कुछ खट्टी-मीठी यादें पीछे छुट जाएंगी....तो कुछ  नई बातों का इंतजार रहेगा,नये अनुभव से जुड़ने को मन बेकरार रहेगा....!
            पर आज की रात कुछ अनहोनी घटनाएं भी हो जाती है, जश्न मनाने के फेर में ,लोग ज्यादा शराब पीकर तेज रफ्तार में गाड़ी चलाते हैं..या सड़कों पर उदंडता करते हैं ....
अपने अनमोल जीवन को खतरे मैं डालते हैं।
जश्न मनाये जरुर पर अपने जीवन से हाथ धो कर नहीं।.....
आप खास हो आपकी चेहरे पर दौड़ती मुस्कान खास है।
आने वाला साल ना जाने कौन  सी मासुम खिलखिलाहट के साथ हमे लाभान्वित कर जाए या कुछ अनचाहा छीन लें..
                    पर इतना मन बना लेना चाहिए कि "आल इज वेल"और खुद की पीठ खुद थपथपा लेनी चाहिए। बस इतनी ही बाते करते हैं।
सभी ब्लाग मित्रों को नववर्ष की अग्रिम शुभकामनाएं आप सभी स्वस्थ और खुशहाल रहे.और ढेर सारी अच्छी रचनाओं के साथ अपने अपने ब्लॉग की तरक्की के गवाह बने...happy new year ...(1918.)..and bye bye 1917....!!

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

कुछ अनचाहा हुआ था....

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में
कुछ अनचाहा हुआ  था
चिथड़ों में बांधे उसे कोई छोड़
गया था..!
उठा अंधेरे  का फ़ाएदा                                        
बना गुनाहों की गठ्ठरी                                       
क्योंकर कोई फेंक गया था..?

यह  सवाल 
कुछ अन्य चंद सवालों से
बड़ा था...
वह  नवजात माँ  के गर्भ से
बाहर निकल  धूल पर पड़ा था...!

बदन पर कपड़े के नाम पर
गर्भनाल लिपटा था..!
     
परिस्थितियों से बेपरवाह
समय के ज्ञान से अंजान..
चिहुंककर रो पड़ता...!
वह  मासूम नन्हीं-सी जान
रोना भी वो रोना नहीं था उसका
भला एक दिन का 
जन्मा  नवजात
क्या जाने रोना या  रीत दुनिया की
वह  तो चला आया
जीवन जीने.!
कभी कभार चुप हो जाता ..!
फिर अचानक उसे लगता  
कि  वह तो भूखा  है
फिर  रोता है
अंदर के आक्रोश को
चीख़ों  के साथ बताता है।
शायद सवाल पूछना चाहता होगा...?
ख़ुद  के जन्म का 
सामाजिक सरोकार से अपडेट चाहता होगा..!
       क्या है  वो...!
        कौन है वो...!
        किन्हीं दो  नासमझ की भूल...?
या आज के युवाओं की मॉडर्न ज़रूरत ?
या किसी मासूम के  साथ घटी कोई दुर्घटना ?
ख़ैर  बातें तो होती हैं
पर उसका क्या....?
वो मासूम भुगत रहा किस बात की सज़ा ?
हाँ  ....उसे तो चीटियाँ  काट रही हैं ।
ये पत्थर भी चुभ रहे हैं  उसे शूल की तरह
इस फटी चादर के झीने कोनों  से
ठंड भी घुसने को लालायित
उसकी  नरम चमड़ी को  
निर्ममता  से  सहला जाती है
तो कभी सड़क के किनारे
चमचमाती दो जोड़ी  गुर्राती आँखें 
उसका मुआवना कर बढ़ जातीं आगे
मानो चेतावनी दे रहीं हों
रात जरा और गहरा जाए...!
अब  तो ये उस नन्हे को भी
अहसास हो चला था।
वो अकेला इस कूड़ेदान में पड़ा था
न जाने किसके भावुक पलों का
दंश एक मासूम  अनचाहे ही  भोग रहा था
कब तक चलेंगीं  सांसें उसकी
एक घंटे... दो घंटे....... !
या क़िस्मत का मारा
जी जायेगा...?
हाँ  दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में
कुछ अनचाहा ज़रूर हुआ था
यह सवाल विचलित खड़ा था.....!!!
#अनीता लागुरी (अनु)

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

वो गुलाबी स्वेटर....



कहाँ गई
प्यारभरी रिश्तों  की  बुनावट,


वो नर्म-सी  गरमाहट..।

वो बार-बार
बुलाकर उपर से नीचे
तक नाप लेने की
तुम्हारी शरारत,
वो छेडख़ानी
वो ऊन के गोलों  से
मुझे लपेट देना
और कहना मुझसे  ...
पकड़ो....पकड़ो... मुझे...!

याद आती है
बातें तुम्हारी
तुम बुनती रहीं
रिश्तों  के महीन धागे,
और मैं  बुद्धू
अब तक उन रिश्तों  में
तुम्हें ढूँढ़ता  रहा।

उन रंग-बिरंगे
ऊनी-धागों  में छुपी
तुम्हारी खिली-सी मुस्कुराहट,
ढूँढ़ता रहा वह मख़मली एहसास
जब  प्यार से कहती थी मुझे
ऐ जी ....!
प्लीज़  चाय...
मेरे लिए भी.....!! 

हाथों में आपका  स्वेटर उलझा  है
वक़्त  बावरा हो चला है,
सब समेटे चल पड़ा है
ज़र्द होती हथेलियों के बीच
अश्कों  को पौंछता
नीम-सा कड़वा-मीठा हो चला है।

पर क्या कहूँ....
यादें  हैं बहुतेरी
यादों  का  क्या....!
किंतु  अब  भी  जब
खुलती है अलमारी
तुम्हारे  हाथों से बना
वो गुलाबी स्वेटर
तुम्हारी यादों  को 
भीना-भीना महकाता है 
कहता  है  मुझसे
अब  पहन  भी लो मुझे,
समेट लो अपने
अंकपाश में  मुझे
और धीरे से कहो
स्वेटर में तुम ही हो मेरे साथ !
#अनीता लागुरी (अनु)