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सोमवार, 16 अप्रैल 2018

ख़ामोश मौतें!!

बस्तियां- दर- बस्तियां
      हुईं  ख़ामोश ,
ये फ़ज़ाओं  में कोन-सा
      ज़हर घुल गया..!!
जहां तक जाती हैं
      नज़रें मेरी..!
वहां तक लाशों का
   शहर बस गया..!!
इन सांसों में कैसी,
     घुटन है छाई,
मौत से वाबस्ता
हर बार कर गया...!!
ये कैसी ज़िद है,
         तुम्हारी
ये कैसा जुनून है
        तुम्हारा..!
कि मुकद्दर में मेरे
सौ ज़ख़्म  लिख गया..!!!
तुम भी इंसां  हो
मैं भी इंसां  हूँ ,
फिर भला मेरी मौत
तुम्हें है...क्यों  प्यारी....??
   कभी देखा है?
मासूम हाथों में..!!
बहते लाल रंग को!!
जिह्वा निकल रही ,
उबलती आंखों को,
  कतारों में
लेटी अनगिनत लाशों को,
कफ़न भी मयय्सर न
होने वाले मंज़र  को...!!
वो ऊपर बैठा 
वो भी यही सोच रहा होगा
कब इंसानो को मैंने
राक्षस बना दिया..!!!
 #अनीता लागुरी(अनु)

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

सांप्रदायिक उन्माद

Image result for image of roitesअरे मारो उसे....!              आहहह...!!!
पकड़ो..! काट डालो..!!!
...लो बचने न पाये...!
जलाओ उसे .!!
फ़र्क़  क्या पड़ता है?
छोड़ो ! 

कौन......?  
....... जी
रिश्ते गिनने लग गये.....!
तो हो गयी
ख़ून-ख़राबे  की होली..
यह है कड़वा
मगर आज का अकाट्य सत्य
सत्य जो दिखता है
सत्य जो रुलाता है
सत्य जो पूछता है
कहां खड़े हो आज तुम
इतना गुस्सा
इतना स्वार्थ
कि अपनी आत्मतुष्टि के लिए 
हथियार उठाए
अपनी ही गली में
लाल रंग फैलाते हो
और नालियों में 
लहू बहाते हो 
और करते हो
अट्टहास!!
लो ले लिया पूरा बदला
मुझे देश-दुनिया से क्या
मैं जीता हूँ
अपने धर्म  और समाज के नाम पर
ख़ून  बहे तो बहे
लोगों के  घर जले तो क्या
मैं नहीं झुकनेवाला
देश जल रहा है
गलियों में
चौराहों पर
धर्म के नाम पर कत्लेआम
हो रहे हैं
भाई...अब तो डर लगता है
इंसान  होने से
डर लगता है अपनी
ज़ात बताने से
न जाने कौन  कब  कहां
बैठा हो अंधभक्ति के साथ
और काट दे मेरा गला
आज तक क्या पाया 
और खोया क्या-क्या
तुमने ...हमने.....???
# अनीता लागुरी ( अनु )

चित्र साभार : गूगल 

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

तुम्हारे कहने से चलो मुस्कुरा देती हूँ..!

                                       
मुझे आती नहीं
मुस्कुराहट  तुम्हारी  तरह
न ही आती है                                                आँखों को नीचेकर 
शरमाने की कला
मेरी संवेदनाएं तो यहीं से
झाँकतीं हैं
बस जहां तक देख पाऊँ
उतने ही ख़्वाब बुनती हूँ
देख रही हो...
कटे-फटे हाथों  की मेरी लकीरों को
इनमे धंसी  इस माटी को
ये कहती हैं मुझसे
हमें  तुम पर गर्व  है
तुम भूख को मात देती हो
अपने चेहरे पर 
दौड़ने  वाली मुस्कान से
और तुम कहती हो..?
आप ऐसे देखो तो
तस्वीर अच्छी आएगी
क्या अच्छी... क्या बुरी
...!
बस  तुम्हारे  तस्वीर लेने से
मेरे माथे से बह रही
पसीने की बूँदें 
मेरी क़िस्मत को
नहीं  बदलेगी
पर बिटिया ...!
तुम्हारे कहने से चलो
मुस्कुरा देती हूँ..!
#अनीता लागुरी ( अनु )

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

यह भी है एक बवाल ...... !



जीवन में चढ़ते-घटते 

प्रपंच का बवाल

आज तड़के दर्शन हो गये

फिर से एक बवाल के 

चीख़ती नज़र  आई

रमा बहू सास के तीखे प्रहार से।


कर अनसुनी क़दम ढोकर

बढ़  गया मैं 

सू गली का चौराहा         
                            
किचकिच का शोर 

इकलौता नल

कहें नो मोर..... ,नो मोर...... 

यहां भी थी 

एक जंग की तैयारी

होने वाली थी 

बवाल की मारा-मारी

कौन किसकी सुने

हर नारी थी सब पे भारी। 


बढ़  चला फिर आगे मैं 

जा बैठा  कोने वाली बैंच पर

ले ही रहा था राहत की सांस

उफ़!

यहां भी हो गया  प्रेमी जोड़ों में 

बवाल...!

सोलहवां सावन 

प्यार में डूबा मन

प्रेमी न समझे तो  

दिल के टूटने का 

बड़ा बवाल ....!


बवाल कहां नहीं है

बस में सीट न मिले तो बवाल

पति पसंद की साड़ी न दिलाए

तो बवाल

बच्चों की न सुनो तो बवाल

पूरी सोसायटी ही बवाल है। 


कुछ होते हैं 

हाई-प्रोफाइल बवाल

राजनीति की खुली गलियों में

जूतम-पैज़ार  का  बवाल

होंठों को सिलते

तानाशाह के रुतबे का बवाल

जो अक्सर कर देते हैं

रियाया को हलाल 

कुछ मेरे मन में भी 

व्याप्त हैं  बवाल 

इंसान हूँ 

बात इंसानियत की करता हूँ 

गर बना रहना चाहूँ  इंसान 

तो करूँ  बवाल ?


पर वास्तविकता क्या है

इस बवाल की

ये सारा जीवन-तंत्र ही बवाल है

खो गयी  शान्ति मन की

दौड़ रहा हर इंसान यहां 

युवा दौड़ लगाए नौकरी की

ग़रीब जुगाड़  करे ज़रुरतों की

वास्तव में  ये सबसे बड़ा  है सवाल

सही मायने में 

यह  भी  है  एक  बवाल ...... !
#अनीता लागुरी ( अनु )
 Google image.

शनिवार, 13 जनवरी 2018

जब जला आती हूँ अलाव कहीं...



ये मन

धूं-धूं जलता है 

जब ये मन

तन से रिसते 

ज़ख़्मों के तरल

ओढ़ के गमों के

अनगिनत घाव 

जब जला आती हूँ 

अलाव कहीं

धीमी-धीमी आंच पर

सुलगता है ये मन

उन सपनों की मानिंद

जो आँखें यों  ही

देखती हैं  मेरी

अनगिनत रतजगी

रातों को

ये धूं-धूं  जलता 

ये मेरा मन

पिघलता है 

मोमबत्ती-सा

और यों  ही

गर्म हो उठता है

उस अलाव-सा
,
जिसे छोड़ आई 

थी कहीं..

उस अकेले चांद संग...!



# अनीता लागुरी (अनु)

मंगलवार, 9 जनवरी 2018

यह मेरी हार है....

            (जीवन पथ पर बढ़ते रहने की सीख देता एक भाई..)




रुक जाओ
मत भागो
मैं नहीं थोपूँगा 
अपनी पराजय तुम पर
यह  मेरी हार है।

मेरे सपनों की 
दम तोड़ती
अट्टालिकाओं के 
ज़मी-दोज़ होने की हार है।

गर कठघरे में खड़ा होगा कोई
तो वो मैं होऊँगा
सादियों से जलता रहा हूँ  मैं
आज भी जलते सूरज का 
तीक्ष्ण प्रहार मैं ही झेलूँगा। 

मेरे भाई... 
कुछ पल ठहर जाओ
सहने को.....  मरने को..... 
कोई एक ही मरेगा
और वो मैं होऊँगा।

इन बची हुई स्मृतियों से
ढक देना ख़ुद  को
और‌ जब 
अंत होगा ज़मीं का
दौड़कर  चढ़ जाना
पश्चिम की ओर
और वापस आकर 
माँ की गोद में 
सर रख कर
सांसों को धीमा करना..!

इन स्मृतियों को वहीं कहीं
कूड़ेदान में डालकर चल देना
बस चलते ही जाना
ये मेरी पराजय 
मैं नहीं थोपूंगा  तुम पर
ये मेरे लिखे शब्दों की हार है
वर्षों से है शापित जीवन  मेरा
आज दफ़न भी हो जाए  तो क्या  ग़म है......?
#अनीता लागुरी (अनु)


सोमवार, 8 जनवरी 2018

उतरन...


दीदी!
क्या गलती थी मेरी
पूछना चाहती हूँ आज
जन्म तुम्हारे बाद हुआ
इसमें मेरा क्या कसूर

बाबा की अँगुली
थामी  तुमने  
तुम्हारी मैंने
हर चीज़ तुम्हारे बाद मिली मुझे
किताबें तुम्हारी
क़लमें तुम्हारी
बस जिल्द  नयी लगा दी जाती
किताबों पर 
तुम्हारे कपड़ों
पर बस गोटें  नई टांक दी जातीं 
झिलमिल वाली
ताकि बालसुलभ मन मेरा
उलझा रहे
रंगीन गोटों की चमक में
खिलौने तुम्हारे
यहां तक कि कभी-कभी
थाली में बची सब्ज़ी
तक तुम डाल दिया करती थी
उफ़ तक करती
क्योंकि स्नेह की अटूट डोर थी दिल में
पर क्यों......?
सुहाग को अपने 
बांध रही हो 

संग मेरे 

ये ना कोई पुरानी किताब है

ना कोई गोटे वाली फ्रॉक 
ये तो ज़िन्दगी है 
दीदी मेरी, यहां भी मिलेगी क्या .....उतरन तुम्हारी...!!!
सजेगी मेरी मांग की लाली
अब तुम्हारे ही सिंदूर से
अपनी शादी का जो जोड़ा
सहेज रखा है तुमने 
उसे  पहनकर  कैसे बैठूँ
मंडप में  संग जीजू  के...... 
साथ लिए फेरों का
सात  वचनों का 
सात जन्म का 
रिश्ता......
तुम तोड़ के कैसे
मुझे जोड़ चलीं 
मैं कठपुतली नहीं
हाथों की तुम्हारी
तक़दीर अपनी लायी हूँ 
माना क़ुदरत ने 
रची साज़िशें आपके साथ 
घर-आंगन की किलकारी  
दी आपके हक़ में
पर मैं ही क्यों  दी.... 
माना हूँ  मैं
छोटी बहना
पर ये उतरन मुझे देना......!!!
# अनीता लागुरी (अनु)

चित्र साभार : गूगल 


गुरुवार, 4 जनवरी 2018

तुम्हारे प्यार में.....

हां तुम्हारे प्यार में डूबा मैं
उस चांद से पूछ बैठता हूँ
क्या तुम्हें नींद नहीं आती
यों  टकटकी लगाए,
क्या देखते हो
या रातों को जागने की
आदत हो  गई
मेरी  तरह..?
या तुम भी कर बैठे प्यार किसी से?
क्या करुं
सर्दी में मुँह से निकलते धुंए को
हवाओं में उड़ाता चला हूँ मैं 

जानता हूँ मैं 
ये  धुआँ नहीं भ्रम है  मेरा
पर फिर भी इस दिल को 

समझाऊँ  कैसे
जो तुम्हारे न होने के अहसास को
पुख़्ता  सबूत बनाता है
जो मेरे  क़दमों को थाम 

आगे बढ़ने से रोक देता है
हाँ सिर्फ़  तुम्हारे प्यार में
बावरा बन.. घूम आता  हूँ
गलियों में , चौराहों पर ...
तो कभी यादों की पगडंडियों पर
थामे हाथ तुम्हारा चल पड़ता  हूँ
उस अनंत क्षितिज की ओर
उस लाल रक्तिम आभा से युक्त
सूरज को छूने
तो कभी तुम्हारी धड़कनों की
धक-धक को सुन उसकी लय में
ख़ुद  को तलाशता
अंजाने ही अर्थविहीन चल पड़ता हूँ
तो कभी छत पर सूखता
तुम्हारा वो नीला-नारंगी दुपट्टा अलबेला
और उससे आती तुम्हारे बदन की वो ख़ुशबू ...!
उसे ढूंढ़ता  न जाने कहां चल पड़ता हूँ  मैं
हां तुम्हारे प्यार में.!
न जाने क्यों
पाबंदियां की परिभाषा भूल गया हूँ
मौसम के चढ़ने-उतरने का 

राग भूल गया हूँ
नभ में उड़ते पंछियों की आज़ादी
भूल गया हूँ मैं 

हाँ  तुम्हारे प्यार में
सुर्ख़ मख़मली एहसासों की नुमाइश कर चला हूँ
समेट लो अपने बाहों में.....
वरना ....न जाने क्या से 
क्या चला हूँ  मैं...!!!
#अनीता लागुरी (अनु)
                  

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

कुछ अनचाहा हुआ था....

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में
कुछ अनचाहा हुआ  था
चिथड़ों में बांधे उसे कोई छोड़
गया था..!
उठा अंधेरे  का फ़ाएदा                                        
बना गुनाहों की गठ्ठरी                                       
क्योंकर कोई फेंक गया था..?

यह  सवाल 
कुछ अन्य चंद सवालों से
बड़ा था...
वह  नवजात माँ  के गर्भ से
बाहर निकल  धूल पर पड़ा था...!

बदन पर कपड़े के नाम पर
गर्भनाल लिपटा था..!
     
परिस्थितियों से बेपरवाह
समय के ज्ञान से अंजान..
चिहुंककर रो पड़ता...!
वह  मासूम नन्हीं-सी जान
रोना भी वो रोना नहीं था उसका
भला एक दिन का 
जन्मा  नवजात
क्या जाने रोना या  रीत दुनिया की
वह  तो चला आया
जीवन जीने.!
कभी कभार चुप हो जाता ..!
फिर अचानक उसे लगता  
कि  वह तो भूखा  है
फिर  रोता है
अंदर के आक्रोश को
चीख़ों  के साथ बताता है।
शायद सवाल पूछना चाहता होगा...?
ख़ुद  के जन्म का 
सामाजिक सरोकार से अपडेट चाहता होगा..!
       क्या है  वो...!
        कौन है वो...!
        किन्हीं दो  नासमझ की भूल...?
या आज के युवाओं की मॉडर्न ज़रूरत ?
या किसी मासूम के  साथ घटी कोई दुर्घटना ?
ख़ैर  बातें तो होती हैं
पर उसका क्या....?
वो मासूम भुगत रहा किस बात की सज़ा ?
हाँ  ....उसे तो चीटियाँ  काट रही हैं ।
ये पत्थर भी चुभ रहे हैं  उसे शूल की तरह
इस फटी चादर के झीने कोनों  से
ठंड भी घुसने को लालायित
उसकी  नरम चमड़ी को  
निर्ममता  से  सहला जाती है
तो कभी सड़क के किनारे
चमचमाती दो जोड़ी  गुर्राती आँखें 
उसका मुआवना कर बढ़ जातीं आगे
मानो चेतावनी दे रहीं हों
रात जरा और गहरा जाए...!
अब  तो ये उस नन्हे को भी
अहसास हो चला था।
वो अकेला इस कूड़ेदान में पड़ा था
न जाने किसके भावुक पलों का
दंश एक मासूम  अनचाहे ही  भोग रहा था
कब तक चलेंगीं  सांसें उसकी
एक घंटे... दो घंटे....... !
या क़िस्मत का मारा
जी जायेगा...?
हाँ  दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में
कुछ अनचाहा ज़रूर हुआ था
यह सवाल विचलित खड़ा था.....!!!
#अनीता लागुरी (अनु)

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

वो गुलाबी स्वेटर....



कहाँ गई
प्यारभरी रिश्तों  की  बुनावट,


वो नर्म-सी  गरमाहट..।

वो बार-बार
बुलाकर उपर से नीचे
तक नाप लेने की
तुम्हारी शरारत,
वो छेडख़ानी
वो ऊन के गोलों  से
मुझे लपेट देना
और कहना मुझसे  ...
पकड़ो....पकड़ो... मुझे...!

याद आती है
बातें तुम्हारी
तुम बुनती रहीं
रिश्तों  के महीन धागे,
और मैं  बुद्धू
अब तक उन रिश्तों  में
तुम्हें ढूँढ़ता  रहा।

उन रंग-बिरंगे
ऊनी-धागों  में छुपी
तुम्हारी खिली-सी मुस्कुराहट,
ढूँढ़ता रहा वह मख़मली एहसास
जब  प्यार से कहती थी मुझे
ऐ जी ....!
प्लीज़  चाय...
मेरे लिए भी.....!! 

हाथों में आपका  स्वेटर उलझा  है
वक़्त  बावरा हो चला है,
सब समेटे चल पड़ा है
ज़र्द होती हथेलियों के बीच
अश्कों  को पौंछता
नीम-सा कड़वा-मीठा हो चला है।

पर क्या कहूँ....
यादें  हैं बहुतेरी
यादों  का  क्या....!
किंतु  अब  भी  जब
खुलती है अलमारी
तुम्हारे  हाथों से बना
वो गुलाबी स्वेटर
तुम्हारी यादों  को 
भीना-भीना महकाता है 
कहता  है  मुझसे
अब  पहन  भी लो मुझे,
समेट लो अपने
अंकपाश में  मुझे
और धीरे से कहो
स्वेटर में तुम ही हो मेरे साथ !
#अनीता लागुरी (अनु)
                  

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

अमानवीयता का गठजोड...


संवेदनाओं को  तिलांजलि देता

अमानवीय मूल्यों का गठजोड़

इंसानों को नरभक्षी बनाता

है  ये  कैसा कलयुग घनघोर 

विकट विह्वल  परिस्थितियों में

निर्मित हुए भंवर नादियों  में 

स्वंय को घेरता 

फिर अभिमन्यु-सा चक्र घुमाता

घूमे  चारों ओर...!

ख़ुद  ही स्वार्थ को रचता

ख़ुद  ही मकड़जाल में  फंसता

अपने गले के लिए फंदा बनाता...!

क्यों ये मूर्ख  बनता हर रोज़ ..? 

क्या यह  भी है 

किसी व्यवस्था का ठौर

देखो कभी शहरों के बीच

कचरे के ढ़ेरों  में

बजबजाता मक्खियों का शोर

और चंद फ़ासलों में पड़े

नौनिहालों के अधभरे बोर

जो ढूँढ़ते हैं अपने सपनों  के छोर

न बनाओ ऐसी परिस्थितियां

की रक्त से सिंचित पूँजियां 

न जाने कब बह जाए

कचरे नाले  की ओर

ये चिंताएं करे हरपल 

दिमाग़  में शोर

हर रात सड़कों पर नंगी होती

लुटती-पिटती मासूम आबरुएं

न जाने कितने दरिंदे

बिखरे चारों ओर.............!

जो न  देखें  आयु 

किसकी कितनी ओर

वहीं दूसरी ओर...

सड़कों पर फेंक  दी जाती

मासूम  नवजातों की जीवित देह 

यह  तिलांजलि  मानवीयता की  नहीं  

तो और क्या है..?

चहुँओर त्राहि माम-त्राहि माम  मचा है

कुछ ज़्यादा तो कोई कुछ कम मरा है

संवेदनाओं की शूली पर

हर एक भारतीय परिवार खड़ा है

किसका कसूर......?

कैसा कसूर...?

सवाल अनुत्तरित

जवाब अदृश्य

कौन बताए ...क्या है चहुँओर

घिसटती-पिटती ज़िन्दगी की  डोर

डर कर साँसें लेता 

घुटता पल-पल

हे मानव रोक ले....!  

ख़ुद  को तू ..…..

मत बन दानव... 

याद रख  तू !

हम सब एक हैं 

न तू  हिन्दू 

न  मैं मुसलमां

स्वार्थ की वेदी पर

ख़ुद  ही न बन जाए अस्तित्वहीन तू..!

बचा ले अपनी संवेदनशीलता 

जगा ले सोई मानवता

ये ज़िन्दगी  बस एक ही काफ़ी  है

कर सको तो इतना कर जाना..

अपने हिस्से की मुस्कान ...

बांट जाना...!

# अनीता लागुरी ( अनु )

मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

एक अदना-सी मेरी तस्वीर.....!!!

       
          एक ऐसे इंसान की अंतिम पलों  की व्यथा प्रस्तुत कर रही हूँ  जिन्होंने पूरी ज़िन्दगी को ज़िंदादिली  से जीया
पर  दुर्भाग्यवश दिमाग़  में  ख़ून  के थक्के जम जाने के कारण..उन्हें पैरालाइसिस अटैक आया ...और हर वक़्त   देव साहब के गीत गुनगुनाने वाले इंसान की जुबां  अचानक ख़ामोश  हो गई .....पूरे 8 महीने कोमा में  शून्य को ताकते न जाने क्या क्या सोचते रहे ..! 
        ज़्यादातर समय मैं  ही उनके साथ थी।  उनकी तकलीफ़  को मैंने  आँखों  से देखा और महसूस किया  है ..बस उनके अंतिम पलों  के विचारों को शब्दों का रुप दिया है मैंने ....

बाबा मेरे
=======




बग़ल  वाले कोने के  कमरे से

अक्सर  उनकी दबी-घुटी 
धीमी-सी आवाज़  आती थी...
बिटिया...!!
ओ री बिटिया ...।
थमा  दे ना वो दवा की पुड़िया।
और एक गिलास पानी का,
शायद ऐसा ही वो मुझसे कहना चाहते थे।
याद हैं  मुझे उनके वो
अंतिम पल...!
जब असहाय  बे-बस मुझे
घूरा करते थे
पानी ,दवा, भोजन 
सबके लिए मुहताज.....!
अपने लिए हर मौके की
तलाश किया करते थे.... 
अक्सर आँखों  की भाषा

समझ जाते...!
और इशारों  से कहते
ना ....री ..बिटिया
अब नहीं करूँगा  परेशान तुम्हें
अंतिम पलों  में  साथ रहो मेरे
दिल धक से कर जाता था मेरा... 
उनकी आख़िरी क्षणों  की
सोच यादों से निकालकर
शब्दों मे बंया कर रही  हूँ ....।
ये कैसा जीवन है,
धत्त !
जीवन भर पैसे-पैसे की दौड़ लगाई
रिश्ते-नाते तमाम उम्र
उलझा रहा इसी झंझावात में 
आज मर रहा हूँ  ...   अकेला ! 
कोई नहीं साथ मेरे....!
जहां तक नज़रें जाती हैं 
मुर्दनी-सी  ख़ामोशी  दिखती है
मटमैली चादर, बिखरे बाल
दवाओं और दुआओं से भरा मेरा ये कमरा....
सामने पड़ा महीनों पहले का
पुराना ये अख़बार 
अपनी ही तरह
मुझे चिड़ा रहा है...
और कभी-कभी ....
अचानक बज पड़ता वो
पुराना रेडियो
सोना चाहता हूँ  लंबी नींद ....
अब नहीं  लगती ज़िन्दगी आसान...
ओ बिटिया....! 
कर देना इतना-सा काम....!
टांग देना कोठरी में ...
एक अदना-सी मेरी तस्वीर.....!!!
# अनीता लागुरी (अनु )

सोमवार, 11 दिसंबर 2017

शायद रुह को मेरी ...तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!


शायद रुह को मेरी

तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!



लौट आना उस शहर में

            दोबारा

जहाँ मेरी सांसें  अंतिम

          कहलाईं 

जहां धुंध-धुंध जलती रही मैं

और दिल बर्फ़-सा रिसता रहा

नष्ट होता वजूद मेरा,

कहानियां​ कहता  रहा।

वो खेतों से गुज़रती

नन्हीं  पगडंडियां..!!

वो पनघट की उतरती-चढ़ती सीढ़ियां ।

जहाँ  अक्सर  तुम मेरे

अधरो की मौन भाषा

पढ़ा करते थे

और हमें देख

शर्म से लाल सूरज

छुप जाया करता था 

वो कोयली नदी का

हिम-सा पानी

जहां मेरे पैरो की बिछुए 

अक्सर  गुम हो जाया करते थे 

और तुम्हारे हाथों  का स्पर्श

मुझे सहला जाता था ह्रदय के कपाटों तक 

वो पनधट पर  हँसी-ठिठोली करती पनिहारिन

जिनकी चुहलबाज़ी 

तुम्हें परेशान किया करती थी 

और तुम मेरा हाथ थामे

चल देते थे 

क्रोध की ज्वाला लिए...

और मैं  हँस पड़ती 

मानो मुझे कोई  ...

तुमसे छीन ले  चला....!!

एक और बार चले आओ ..... 

उस शहर में दोबारा

जहां हर दीवार पर 

तुमने नाम मेरा लिखा था

शायद रुह को मेरी

तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!

#अनीता लागुरी (अनु)

चित्र साभार : गूगल