शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

वो गुलाबी स्वेटर....



कहाँ गई
प्यारभरी रिश्तों  की  बुनावट,


वो नर्म-सी  गरमाहट..।

वो बार-बार
बुलाकर उपर से नीचे
तक नाप लेने की
तुम्हारी शरारत,
वो छेडख़ानी
वो ऊन के गोलों  से
मुझे लपेट देना
और कहना मुझसे  ...
पकड़ो....पकड़ो... मुझे...!

याद आती है
बातें तुम्हारी
तुम बुनती रहीं
रिश्तों  के महीन धागे,
और मैं  बुद्धू
अब तक उन रिश्तों  में
तुम्हें ढूँढ़ता  रहा।

उन रंग-बिरंगे
ऊनी-धागों  में छुपी
तुम्हारी खिली-सी मुस्कुराहट,
ढूँढ़ता रहा वह मख़मली एहसास
जब  प्यार से कहती थी मुझे
ऐ जी ....!
प्लीज़  चाय...
मेरे लिए भी.....!! 

हाथों में आपका  स्वेटर उलझा  है
वक़्त  बावरा हो चला है,
सब समेटे चल पड़ा है
ज़र्द होती हथेलियों के बीच
अश्कों  को पौंछता
नीम-सा कड़वा-मीठा हो चला है।

पर क्या कहूँ....
यादें  हैं बहुतेरी
यादों  का  क्या....!
किंतु  अब  भी  जब
खुलती है अलमारी
तुम्हारे  हाथों से बना
वो गुलाबी स्वेटर
तुम्हारी यादों  को 
भीना-भीना महकाता है 
कहता  है  मुझसे
अब  पहन  भी लो मुझे,
समेट लो अपने
अंकपाश में  मुझे
और धीरे से कहो
स्वेटर में तुम ही हो मेरे साथ !
#अनीता लागुरी (अनु)
                  

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

अमानवीयता का गठजोड...


संवेदनाओं को  तिलांजलि देता

अमानवीय मूल्यों का गठजोड़

इंसानों को नरभक्षी बनाता

है  ये  कैसा कलयुग घनघोर 

विकट विह्वल  परिस्थितियों में

निर्मित हुए भंवर नादियों  में 

स्वंय को घेरता 

फिर अभिमन्यु-सा चक्र घुमाता

घूमे  चारों ओर...!

ख़ुद  ही स्वार्थ को रचता

ख़ुद  ही मकड़जाल में  फंसता

अपने गले के लिए फंदा बनाता...!

क्यों ये मूर्ख  बनता हर रोज़ ..? 

क्या यह  भी है 

किसी व्यवस्था का ठौर

देखो कभी शहरों के बीच

कचरे के ढ़ेरों  में

बजबजाता मक्खियों का शोर

और चंद फ़ासलों में पड़े

नौनिहालों के अधभरे बोर

जो ढूँढ़ते हैं अपने सपनों  के छोर

न बनाओ ऐसी परिस्थितियां

की रक्त से सिंचित पूँजियां 

न जाने कब बह जाए

कचरे नाले  की ओर

ये चिंताएं करे हरपल 

दिमाग़  में शोर

हर रात सड़कों पर नंगी होती

लुटती-पिटती मासूम आबरुएं

न जाने कितने दरिंदे

बिखरे चारों ओर.............!

जो न  देखें  आयु 

किसकी कितनी ओर

वहीं दूसरी ओर...

सड़कों पर फेंक  दी जाती

मासूम  नवजातों की जीवित देह 

यह  तिलांजलि  मानवीयता की  नहीं  

तो और क्या है..?

चहुँओर त्राहि माम-त्राहि माम  मचा है

कुछ ज़्यादा तो कोई कुछ कम मरा है

संवेदनाओं की शूली पर

हर एक भारतीय परिवार खड़ा है

किसका कसूर......?

कैसा कसूर...?

सवाल अनुत्तरित

जवाब अदृश्य

कौन बताए ...क्या है चहुँओर

घिसटती-पिटती ज़िन्दगी की  डोर

डर कर साँसें लेता 

घुटता पल-पल

हे मानव रोक ले....!  

ख़ुद  को तू ..…..

मत बन दानव... 

याद रख  तू !

हम सब एक हैं 

न तू  हिन्दू 

न  मैं मुसलमां

स्वार्थ की वेदी पर

ख़ुद  ही न बन जाए अस्तित्वहीन तू..!

बचा ले अपनी संवेदनशीलता 

जगा ले सोई मानवता

ये ज़िन्दगी  बस एक ही काफ़ी  है

कर सको तो इतना कर जाना..

अपने हिस्से की मुस्कान ...

बांट जाना...!

# अनीता लागुरी ( अनु )

मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

एक अदना-सी मेरी तस्वीर.....!!!

       
          एक ऐसे इंसान की अंतिम पलों  की व्यथा प्रस्तुत कर रही हूँ  जिन्होंने पूरी ज़िन्दगी को ज़िंदादिली  से जीया
पर  दुर्भाग्यवश दिमाग़  में  ख़ून  के थक्के जम जाने के कारण..उन्हें पैरालाइसिस अटैक आया ...और हर वक़्त   देव साहब के गीत गुनगुनाने वाले इंसान की जुबां  अचानक ख़ामोश  हो गई .....पूरे 8 महीने कोमा में  शून्य को ताकते न जाने क्या क्या सोचते रहे ..! 
        ज़्यादातर समय मैं  ही उनके साथ थी।  उनकी तकलीफ़  को मैंने  आँखों  से देखा और महसूस किया  है ..बस उनके अंतिम पलों  के विचारों को शब्दों का रुप दिया है मैंने ....

बाबा मेरे
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बग़ल  वाले कोने के  कमरे से

अक्सर  उनकी दबी-घुटी 
धीमी-सी आवाज़  आती थी...
बिटिया...!!
ओ री बिटिया ...।
थमा  दे ना वो दवा की पुड़िया।
और एक गिलास पानी का,
शायद ऐसा ही वो मुझसे कहना चाहते थे।
याद हैं  मुझे उनके वो
अंतिम पल...!
जब असहाय  बे-बस मुझे
घूरा करते थे
पानी ,दवा, भोजन 
सबके लिए मुहताज.....!
अपने लिए हर मौके की
तलाश किया करते थे.... 
अक्सर आँखों  की भाषा

समझ जाते...!
और इशारों  से कहते
ना ....री ..बिटिया
अब नहीं करूँगा  परेशान तुम्हें
अंतिम पलों  में  साथ रहो मेरे
दिल धक से कर जाता था मेरा... 
उनकी आख़िरी क्षणों  की
सोच यादों से निकालकर
शब्दों मे बंया कर रही  हूँ ....।
ये कैसा जीवन है,
धत्त !
जीवन भर पैसे-पैसे की दौड़ लगाई
रिश्ते-नाते तमाम उम्र
उलझा रहा इसी झंझावात में 
आज मर रहा हूँ  ...   अकेला ! 
कोई नहीं साथ मेरे....!
जहां तक नज़रें जाती हैं 
मुर्दनी-सी  ख़ामोशी  दिखती है
मटमैली चादर, बिखरे बाल
दवाओं और दुआओं से भरा मेरा ये कमरा....
सामने पड़ा महीनों पहले का
पुराना ये अख़बार 
अपनी ही तरह
मुझे चिड़ा रहा है...
और कभी-कभी ....
अचानक बज पड़ता वो
पुराना रेडियो
सोना चाहता हूँ  लंबी नींद ....
अब नहीं  लगती ज़िन्दगी आसान...
ओ बिटिया....! 
कर देना इतना-सा काम....!
टांग देना कोठरी में ...
एक अदना-सी मेरी तस्वीर.....!!!
# अनीता लागुरी (अनु )

सोमवार, 11 दिसंबर 2017

शायद रुह को मेरी ...तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!


शायद रुह को मेरी

तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!



लौट आना उस शहर में

            दोबारा

जहाँ मेरी सांसें  अंतिम

          कहलाईं 

जहां धुंध-धुंध जलती रही मैं

और दिल बर्फ़-सा रिसता रहा

नष्ट होता वजूद मेरा,

कहानियां​ कहता  रहा।

वो खेतों से गुज़रती

नन्हीं  पगडंडियां..!!

वो पनघट की उतरती-चढ़ती सीढ़ियां ।

जहाँ  अक्सर  तुम मेरे

अधरो की मौन भाषा

पढ़ा करते थे

और हमें देख

शर्म से लाल सूरज

छुप जाया करता था 

वो कोयली नदी का

हिम-सा पानी

जहां मेरे पैरो की बिछुए 

अक्सर  गुम हो जाया करते थे 

और तुम्हारे हाथों  का स्पर्श

मुझे सहला जाता था ह्रदय के कपाटों तक 

वो पनधट पर  हँसी-ठिठोली करती पनिहारिन

जिनकी चुहलबाज़ी 

तुम्हें परेशान किया करती थी 

और तुम मेरा हाथ थामे

चल देते थे 

क्रोध की ज्वाला लिए...

और मैं  हँस पड़ती 

मानो मुझे कोई  ...

तुमसे छीन ले  चला....!!

एक और बार चले आओ ..... 

उस शहर में दोबारा

जहां हर दीवार पर 

तुमने नाम मेरा लिखा था

शायद रुह को मेरी

तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!

#अनीता लागुरी (अनु)

चित्र साभार : गूगल 

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

तापस



मेरी डायरियों के पन्नों में,

रिक्तता शेष नहीं अब,

हर सू  तेरी बातों का

सहरा है..!

कहाँ  डालूं इन शब्दों की पाबंदियाँ 

हर पन्ने में अक्स तुम्हारा

गहरा है...!

वो टुकड़ा बादल का,

वो नन्हीं-सी धूप सुनहरी,

वो आँगन  गीला-सा,

हर अल्फ़ाज़ यहां पीले हैं।

तलाशती फिर रही हूँ ..

शायद कोई तो रिक्त होगा

वो मेरा नारंग रंग....!

तुम्हें पढ़ने की मेरी अविरल कोशिश..!

और मेरे शब्दों की टूटती लय..!

वो मेरी मौन मुखर मुस्कान..

कैसे समाऊँ  पन्नों में ..?

हर सू  तेरी यादों  का सहरा है......... 

तापस..!!!

कहाँ  बिखेरुं इन शब्दों की कृतियाँ.....? 

यहाँ  रिक्तता शेष  नहीं  अब.....!

तुम्हारी मृदुला🍂🍁🍃🍀

# अनीता लागुरी (अनु)

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

फ़र्क़ ये रोटियों में किसने पैदा किया...?

               
तेरी रोटी 
मेरी रोटी से जुदा क्यों है......?
तेरी हमेशा ही तीन कोनों वाली
नर्म मीठी-सी गुदगुदी रोटी
और मेरी  सूखी पापड़ी-सी 
चंदा मामा वाली रोटी...!
मैं सहेजता हूँ 
मेरी रोटी पोटलियों में,
तू  फेंक आता है, 
कचरे की  बाल्टियों  मै,
मेरी रोटी ओढ़े,
भूख और ग़रीबी,
तेरी रोटी में चुपड़ा घी,
फ़र्क़ ये  रोटियों में किसने पैदा किया...?            
तुमने या  मैंने
या ऊपर बैठै 
उस नीली छतरी वाले ने
पर वो .........!!!                             
भूख में फ़र्क़ करना भूल गया,
तुझे भी भूख लगती है.... ।
मुझे भी,
फिर कब हम इंसान बना बैठे...?
रोटियों में फ़र्क़ ..!
 जब तीसरी मंज़िल से रोटी,
 फिकती  है ना,
 न जाने कितने दौड़ पड़ते हैं।
 मेरी तरह.....!
 पिंटो अंकल का टॉमी भी 
दौड़ लगाता है 
कभी मैं आगे,
कभी वो आगे,
 वजह...?
 वो तिकोनी रोटी जिसे तुम
 परांठा  कहते  हो.....!
ऊपर से लहलहा कर नीचें गिरती है
मेरी भूख मे तब्दील होकर,
#अनीता लागुरी ( अनु )
                  
(चित्र साभार: गूगल)

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

दिलों के मकानों में किराए नहीं लगते जनाब!

दिलों के मकानों में
किराए नहीं लगते जनाब!
ये वो शानेख़्वाबगाह  हैं !
जहां मोहब्बतें  सुकूं  से
बसर किया करती  हैं।
इनके  रोशनदान से
सिर्फ़  रौशनी  नहीं आती जनाब!
यहां वो पवित्र रुहें बसा करती हैं
जिनकी दुआओं और बरकतों से
ज़िन्दगी  बसर होती है
किसी ने सही कहा है -
फ़क़त  कट जाए तो
ज़िन्दगी   है
वरना रफ़्तार  दरिया की
मापने से
क्या फ़ाएदा  ..!!
  # अनीता लागुरी ( अनु )                                                                                                                                                    चित्र गूगल से साभार।