सोमवार, 11 दिसंबर 2017

शायद रुह को मेरी ...तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!


शायद रुह को मेरी

तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!



लौट आना उस शहर में

            दोबारा

जहाँ मेरी सांसें  अंतिम

          कहलाईं 

जहां धुंध-धुंध जलती रही मैं

और दिल बर्फ़-सा रिसता रहा

नष्ट होता वजूद मेरा,

कहानियां​ कहता  रहा।

वो खेतों से गुज़रती

नन्हीं  पगडंडियां..!!

वो पनघट की उतरती-चढ़ती सीढ़ियां ।

जहाँ  अक्सर  तुम मेरे

अधरो की मौन भाषा

पढ़ा करते थे

और हमें देख

शर्म से लाल सूरज

छुप जाया करता था 

वो कोयली नदी का

हिम-सा पानी

जहां मेरे पैरो की बिछुए 

अक्सर  गुम हो जाया करते थे 

और तुम्हारे हाथों  का स्पर्श

मुझे सहला जाता था ह्रदय के कपाटों तक 

वो पनधट पर  हँसी-ठिठोली करती पनिहारिन

जिनकी चुहलबाज़ी 

तुम्हें परेशान किया करती थी 

और तुम मेरा हाथ थामे

चल देते थे 

क्रोध की ज्वाला लिए...

और मैं  हँस पड़ती 

मानो मुझे कोई  ...

तुमसे छीन ले  चला....!!

एक और बार चले आओ ..... 

उस शहर में दोबारा

जहां हर दीवार पर 

तुमने नाम मेरा लिखा था

शायद रुह को मेरी

तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!

#अनीता लागुरी (अनु)

चित्र साभार : गूगल 

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

तापस



मेरी डायरियों के पन्नों में,

रिक्तता शेष नहीं अब,

हर सू  तेरी बातों का

सहरा है..!

कहाँ  डालूं इन शब्दों की पाबंदियाँ 

हर पन्ने में अक्स तुम्हारा

गहरा है...!

वो टुकड़ा बादल का,

वो नन्हीं-सी धूप सुनहरी,

वो आँगन  गीला-सा,

हर अल्फ़ाज़ यहां पीले हैं।

तलाशती फिर रही हूँ ..

शायद कोई तो रिक्त होगा

वो मेरा नारंग रंग....!

तुम्हें पढ़ने की मेरी अविरल कोशिश..!

और मेरे शब्दों की टूटती लय..!

वो मेरी मौन मुखर मुस्कान..

कैसे समाऊँ  पन्नों में ..?

हर सू  तेरी यादों  का सहरा है......... 

तापस..!!!

कहाँ  बिखेरुं इन शब्दों की कृतियाँ.....? 

यहाँ  रिक्तता शेष  नहीं  अब.....!

तुम्हारी मृदुला🍂🍁🍃🍀

# अनीता लागुरी (अनु)

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

फ़र्क़ ये रोटियों में किसने पैदा किया...?

               
तेरी रोटी 
मेरी रोटी से जुदा क्यों है......?
तेरी हमेशा ही तीन कोनों वाली
नर्म मीठी-सी गुदगुदी रोटी
और मेरी  सूखी पापड़ी-सी 
चंदा मामा वाली रोटी...!
मैं सहेजता हूँ 
मेरी रोटी पोटलियों में,
तू  फेंक आता है, 
कचरे की  बाल्टियों  मै,
मेरी रोटी ओढ़े,
भूख और ग़रीबी,
तेरी रोटी में चुपड़ा घी,
फ़र्क़ ये  रोटियों में किसने पैदा किया...?            
तुमने या  मैंने
या ऊपर बैठै 
उस नीली छतरी वाले ने
पर वो .........!!!                             
भूख में फ़र्क़ करना भूल गया,
तुझे भी भूख लगती है.... ।
मुझे भी,
फिर कब हम इंसान बना बैठे...?
रोटियों में फ़र्क़ ..!
 जब तीसरी मंज़िल से रोटी,
 फिकती  है ना,
 न जाने कितने दौड़ पड़ते हैं।
 मेरी तरह.....!
 पिंटो अंकल का टॉमी भी 
दौड़ लगाता है 
कभी मैं आगे,
कभी वो आगे,
 वजह...?
 वो तिकोनी रोटी जिसे तुम
 परांठा  कहते  हो.....!
ऊपर से लहलहा कर नीचें गिरती है
मेरी भूख मे तब्दील होकर,
#अनीता लागुरी ( अनु )
                  
(चित्र साभार: गूगल)

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

दिलों के मकानों में किराए नहीं लगते जनाब!

दिलों के मकानों में
किराए नहीं लगते जनाब!
ये वो शानेख़्वाबगाह  हैं !
जहां मोहब्बतें  सुकूं  से
बसर किया करती  हैं।
इनके  रोशनदान से
सिर्फ़  रौशनी  नहीं आती जनाब!
यहां वो पवित्र रुहें बसा करती हैं
जिनकी दुआओं और बरकतों से
ज़िन्दगी  बसर होती है
किसी ने सही कहा है -
फ़क़त  कट जाए तो
ज़िन्दगी   है
वरना रफ़्तार  दरिया की
मापने से
क्या फ़ाएदा  ..!!
  # अनीता लागुरी ( अनु )                                                                                                                                                    चित्र गूगल से साभार।
                                                                                                                                                                              

सोमवार, 4 दिसंबर 2017

सांध्य बेला की ओर ...जीवन बढ़ चला !!!


जीवन बढ़ चला
सांध्य बेला की ओर ...!
सूरज ने भी रक्तिम आभा बिखेर
स्वागत किया मेरा...!
यूँ  लगे कल ही तो
चलना शुरू किया था...!
                  मैंनें ....
थाम  उंगलियां...बाबा की,
गिरकर चला, चलकर बढ़ा ,
 प्रतिपल, प्रतिक्षण , अग्रसर
बढ़ता रहा जीवन पथ पर सदैव...!
हर मौसम ने छुआ मुझे...!
हर मौसम ने तरल किया ... मुझे।
नित नए अनुभवों को जीता,
हर रस को पिया  मैंने
कभी लगा  नहीं बालों की चांदनी छिपाऊँ ,
जी लिया हूँ  जीभर कर
              पर.....
अब तो थकावट-सी होने लगी  है ...!
जीवन सांध्य भी ऊँधने लगी है
दस्तक धीमे से कानों  में गूंजने  लगी है
चलो  अब चलते हैं..
सांसो में पाबंदियां-सी लगने लगी हैं ।
यों   लगे बार- बार ,
सूरज भी कहता हो
मुझसे..!!                                                                                                                                                                                
इस पोशाक को उतार
नयी  को धारणकर                                                                                                                                     नव प्रवेशद्वार में  प्रवेश कर....!!!
इस क्षितिज से उस क्षितिज  तक जाने की।
अग्रिम  तैयारी कर..!!

 #अनीता लागुरी ( अनु )

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

वो पगली...!

वो पगली,
अक्सर गली के चौराहे पर.....!
वो घूरती नीली-सी नज़र
ठिठका जाती कदमों को मेरे....!
एक पल को जड़ हो जाता मैं....
और लगता चोरी से.....
निहारने उसे,
वो बिखरे बालों वाली
फटे चिथड़ों  से,
तन को लपेटने वाली....!
यौवन की ओर अग्रसर
वह पगली मुझे...!
अनायास ही खींच लेती..अपनी ओर.!
और मैं बावरा,
पल में  उसके रोने,
पल में  उसके हँसने की
जादूगरी को देख..!
मन ही मन मुस्करा देता
और पास जाकर पूछ बैठता
रोटी खाई तुमने...?
क्या तुम्हें भूख लग रही है..?
और वो........
न जाने कौन-सी  अक्षुण्ण 
अनुभुति लिए कहती मुझसे...
धत्त बाबू...!!!
# अनीता लागुरी (अनु )
                                                                     (चित्र  साभार गुगल )

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

कैसै कर दूँ रिटायर तुम्हें मेरे मोबाइल ...


अक्सर मैं और मेरा मोबाइल फोन 

बातें  करते हैं ...!

गर तुम ना होते 

तो मेरा क्या होता...?

मैं  न  होती  तो 

कौन तुझे दुलारता ..!

 मोबाइल कातर भाव से कहता है -

कोमल हाथों का स्पर्श कैसे मुझे सहलाता

सुन मेरे फोन -

कानों में मेरे कौन सरगोशियां करता

जब भी सताता अकेलापन 

कैंडी क्रश  कौन  खिलाता

मित्रों से कौन मिलाता 

याद है  मुझे

तेरा वो लाल डिब्बे में आना...!

हौले से मुस्कराकर हैलो कहना...!

कितनी  ख़ुश थी तुझे  पाकर

रात-दिन सारा साथ बिताते ....

साथ ही सोते 

साथ ही जागते ...!

पहचानती है रंग तेरा 

मेरी रजाई / लिहाफ़ ...भी



ब्रश करने से लेकर किचन तक 

तुम मुझमें  मैं तुममें  समाई-सी    

कितनी यादेँ गुथी हैं तुमसे ...!

कितने बादल बरसे हैं 

आँखों से  झर-झर-से

वो मेरा प्यार 

उसकी बातें....      
  
उसकी लड़ाइयाँ ....

सब तुमने देखी-सुनीं है न.....

साक्षी हो बात-बात के 
पर कैसे ...........?  

लोगों को तुम लगे अखरने....!

मॉडल और की-पैड से लगने लगे पुराने...!

कइयों ने समझाया मुझे......

कर दो छुट्टी अब तुम इसकी...

डाल डिब्बे में दो इसको जल्दी...

लिख डालो रिटायरमेंट इसका....!

पर ये क्या जाने नामुराद...


हर दर्द को जीया है संग हमने.....

अपाहिज रिश्ते क्या निभाए नहीं जाते..???

पुराने स्वेटर क्या ठंड से नहीं बचाते..!!

चलो माना फीचर्स थोड़े कम हैं इसमें....!

रंग भी उड़ा-सा बैटरी भी डाउन है इसकी 

फिर भी कई अनमोल यादें हैं इसमें..!!

कैसै कर दूँ  रिटायर तुम्हें मेरे मोबाइल ...

हाथों में..... दिल में...... मेरे 

तुम ही हो बसते ओ प्यारे मोबाइल....!!!

#अनीता लागुरी (अनु)