nothing is easy. In this life sometimes we gain everything and sometimes we lose everything forever
भावों को शब्दों में अंकित करना और अपना नज़रिया दुनिया के सामने रखना.....अपने लेखन पर दुनिया की प्रतिक्रिया जानना......हाशिये की आवाज़ को केन्द्र में लाना और लोगों को जोड़ना.......आपका स्वागत है अनु की दुनिया में...... Copyright © अनीता लागुरी ( अनु ) All Rights Reserved. Strict No Copy Policy. For Permission contact.
सोमवार, 23 अगस्त 2021
बुधवार, 28 जुलाई 2021
रिश्ते
चाय के पतीले में
वो चाय पत्ती नहीं,
बल्कि रिश्तो में उबल आई
कड़वाहट उबाल रही थी..।
ना चाहते हुए भी उस कड़वाहट को
जब वो सामने रखी कप में उड़ेलने लगी..!
उसका धुआँ - धुआँ होता मन
अतीत की परतें खुरचने लगा.!
और फैलाने लगा रिश्तो में बन आए बासी पन को
बस इस किचन के दरवाजे तक ही
उसकी हद थी!
उसके बाहर तो उसकी पैरों में,
बेड़ियाँ लगा दी जाती थी.
🍁
#अनीतालागुरी
बुधवार, 6 जनवरी 2021
रविवार, 21 जून 2020
माना जिंदगी रुलाती है लेकिन हंसने की मौके भी हजार देती है
माना ज़िंदगी रुलाती भी है लेकिन हंसने के मौके भी हजार देती है
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आज के इस दौर में ज़िंदगी हाइड एंड सीक जैसी हो गई है! लुका-छिपाई के खेल में कभी मौक़े हमें मात दे देते हैं तो कभी हम मौक़ों को भुना लेते हैं...। सब कुछ पा लेने की जल्दी, अंदर मन-मस्तिक में बढ़ता उतावलापन; नौकरियों में बढ़ता कंपटीशन; बदलती दुनिया का माहौल; एक ही बार में सब कुछ पा लेने की चाहत ¡ ज़िंदगी मानो रोलर कोस्टर राइड की जैसी हो गई है. कभी यह ज़ूम से ऊपर जाती है। ढेर सारी व्याकुलता कुछ नया पाने देखने की चाहत लेकर उतनी ही तेज़ गति से नीचे भी ले आती है. आज की भागदौड़ वाली ज़िंदगी में निराशा कहें या नकारात्मकता हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है।
साथ ही साथ मैं यह चर्चा भी करती चलूँगी कि कोरोना वैश्विक महामारी ने पूरे विश्व में मानव जीवन को तितर-बितर करके रख दिया है.जबसे कोरोना का प्रकोप पूरे विश्व में फैला है तब से अर्थव्यवस्था नीचे चली गई है। नौकरियाँ ख़त्म हो गईं हैं. कल- कारखाने बंद हो गए हैं. करोड़ों युवा बेरोजगार हो गए हैं. कई परिवार, छोटे व्यवसायी सभी सड़क पर आ गए हैं. ऐसी परिस्थितियों से ही अवसाद की उत्पत्ति होती है.
आज हम इस समय से थोड़ा पीछे जाकर अपनी बात को रखते हैं, वर्तमान समय में युवा, छोटे बच्चे या बड़े बुज़ुर्ग हर कोई किसी न किसी अनजाने तनाव में जी रहे हैं। कोई अपने जॉब को लेकर परेशान है तो कोई अपनी पढ़ाई को लेकर परेशान है। या कोई प्रेम में विफलता को लेकर परेशान है या फिर वो मुझसे बेहतर क्यों? वो मुझसे ज़्यादा सुंदर क्यों? ये सारी बातें आज के दौर के युवाओं के अंतर्मन में हथौडे की तरह हर वक़्त प्रहार कर रही हैं.
अगर आप ने सफलता हासिल कर ली है तो उसे बैलेंस करके रखने की जद्दोजहद जिससे आज का हर युवा एक अंदरूनी लड़ाई लड़ रहा है पर कई बार वह हार जाता है ..और इसके परिणामस्वरूप जो भयंकर रूप सामने आता है वह होता है आत्महत्या यानी अकाल मृत्यु...
लेकिन ऐसा क्यों..? आइए इस मुद्दे पर थोड़ी-सी चर्चा करते हैं। जब भी जीने के प्रति अगर हमारी ललक कम होने लगे, चारों ओर से नकारात्मक विचार हम पर प्रहार करना शुरू कर दें तो ऐसे समय में हमें ख़ुद से यह प्रयास करना चाहिए कि हमें अपना ध्यान दूसरी चीज़ों में लगाना चाहिए क्योंकि यह शुरुआती दौर होता है। जब मानसिक अवसाद हमें धीरे-धीरे अपनी चपेट में लेने की कोशिश करता है । ठीक उस वक़्त हमें अपने लिए कुछ परिवर्तन अपनाने चाहिए. मसलन किताबों से दोस्ती , अच्छा म्यूजिक सुनना या बागवानी करना या फिर ज़िंदगी को और क़रीब से जानने के लिए सैर -सपाटे के लिए निकल जाना. अपने व्यक्तित्व को जिस ढोंग के आवरण से हम ढककर ज़िंदगी जीते हैं उसको ज़रूरत है खींचकर फेंक देने की और साथ ही साथ जितना हो सके सोशल मीडिया के प्रयोग से बचने की क्योंकि यहाँ बहुत सारी नकारात्मकता भी क़ाबिज़ है जो आपके मन- मस्तिक पर बहुत ही बुरा प्रभाव भी डालती है जिसकी वजह से कई बार हम कमज़ोर पड़ जाते हैं.
हम में से कई लोग हैं जो कई-कई घंटे अपने हाथों में फोन को पकड़े न जाने क्या- क्या स्क्रॉल करते रहते हैं देर रात तक जाग कर.कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपना वजूद तलाशते फिरते रहते हैं लेकिन हमें पता है इससे हमें कुछ हासिल नहीं होने वाला है। इससे तो बेहतर होगा कि हम जमकर नींद लें, थका हुआ मन-शरीर हमेशा ग़लत राह पर ले जाता है। हो सके तो ध्यान एवं योगा को अपनी दिनचर्या में ज़रूर शामिल करें ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से मिलें-जुलें.मैं मानती हूँ कि आजकल काम का बोझ या रिश्तो में आया ख़ालीपन भी डिप्रेशन की प्रमुख वजह बनती जा रही है लेकिन कुछ तरीक़े अपनाकर हम ख़ुद की रक्षा कर सकते हैं। अपने परिवार, मित्रों के साथ जितना हो सके वक़्त बिताएँ, लगातार काम करने के प्रभाव में न रहें; वीकेंड पर बाहर जाएँ या लंबी छुट्टियाँ लें. ये सारी गतिविधियाँ आपको रिफ़्रेश करेंगीं, आप दोबारा अगले कार्य के लिए रिचार्ज हो जाएँगे और साथ ही साथ अपने खाने-पीने का भी ख़याल रखें.कभी-कभार शर्म को ताक पर रखकर सड़क किनारे गोलगप्पे भी खा लिया करें.तन की ख़ुशी से ज़्यादा मन की ख़ुशी अहमियत रखती है कभी-कभी...
दरअसल डिप्रेशन एक ऐसा कारक है जो हमें वास्तविकता से काटकर काल्पनिकता के भंवरजाल में उलझाता जाता है। जहाँ हम चीज़ों को अपने मन-मुताबिक़ होते हुए देखना चाहते हैं।
बेहतर होगा कि हम कुछ लिखा करें, किताबों के साथ अपना नाता जोड़ें; अपने बारे में अपने आसपास की घटनाओं के बारे में जितना भी हम लिखेंगे अपने तनाव को हम उतना ही कम करेंगे. अन्य बातों में नकारात्मक लोगों से दूरियाँ बनाना ज़रूरी है. नकारात्मकता से भरे लोग हमेशा ग़लत राह ही दिखाते हैं। कभी-कभी हार भी मान लिया करें. दूसरे लोग अगर हमसे श्रेष्ठ हैं तो उस सचाई को स्वीकारना भी बहुत बड़ी ताक़त है.
जो बुरा हो चुका है उससे और भी बुरा हो सकता है उन परिस्थितियों तक सोचे जाने की स्थिति से बचना चाहिए.
वो कहते ना "when there is a will there is a way'
हिम्मत करके आगे बढ़ने वालों की कभी हार नहीं होती है..।
अगर मन में घबराहट या आशंका बढ़ने लगी है तो किसी मित्र या मनोचिकित्सक से ज़रूर सलाह परामर्श करें. इसमें शर्माएँ नहीं क्योंकि यह हमारी ज़िंदगी है जिसे हमें ख़ुद ही संभालकर रखना है
कवि शैलेंद्र जी की चंद पंक्तियां यहां जोड़ना चाहूंगी-
ये ग़म के और चार दिन ,
सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाएँगें गुज़र,
गुज़र गए हज़ार दिन....
सबसे बड़ी बात अपनी ज़िंदगी से प्यार करना सीखो.अगर आप ख़ुद से प्यार करेंगे तो कभी भी कोई भी मुसीबत आपको हरा नहीं सकती है। आप हर फील्ड में सबसे आगे एक योद्धा बनकर निकलोगे.
@अनीता लागुरी "अनु'
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आज के इस दौर में ज़िंदगी हाइड एंड सीक जैसी हो गई है! लुका-छिपाई के खेल में कभी मौक़े हमें मात दे देते हैं तो कभी हम मौक़ों को भुना लेते हैं...। सब कुछ पा लेने की जल्दी, अंदर मन-मस्तिक में बढ़ता उतावलापन; नौकरियों में बढ़ता कंपटीशन; बदलती दुनिया का माहौल; एक ही बार में सब कुछ पा लेने की चाहत ¡ ज़िंदगी मानो रोलर कोस्टर राइड की जैसी हो गई है. कभी यह ज़ूम से ऊपर जाती है। ढेर सारी व्याकुलता कुछ नया पाने देखने की चाहत लेकर उतनी ही तेज़ गति से नीचे भी ले आती है. आज की भागदौड़ वाली ज़िंदगी में निराशा कहें या नकारात्मकता हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है।
साथ ही साथ मैं यह चर्चा भी करती चलूँगी कि कोरोना वैश्विक महामारी ने पूरे विश्व में मानव जीवन को तितर-बितर करके रख दिया है.जबसे कोरोना का प्रकोप पूरे विश्व में फैला है तब से अर्थव्यवस्था नीचे चली गई है। नौकरियाँ ख़त्म हो गईं हैं. कल- कारखाने बंद हो गए हैं. करोड़ों युवा बेरोजगार हो गए हैं. कई परिवार, छोटे व्यवसायी सभी सड़क पर आ गए हैं. ऐसी परिस्थितियों से ही अवसाद की उत्पत्ति होती है.
आज हम इस समय से थोड़ा पीछे जाकर अपनी बात को रखते हैं, वर्तमान समय में युवा, छोटे बच्चे या बड़े बुज़ुर्ग हर कोई किसी न किसी अनजाने तनाव में जी रहे हैं। कोई अपने जॉब को लेकर परेशान है तो कोई अपनी पढ़ाई को लेकर परेशान है। या कोई प्रेम में विफलता को लेकर परेशान है या फिर वो मुझसे बेहतर क्यों? वो मुझसे ज़्यादा सुंदर क्यों? ये सारी बातें आज के दौर के युवाओं के अंतर्मन में हथौडे की तरह हर वक़्त प्रहार कर रही हैं.
अगर आप ने सफलता हासिल कर ली है तो उसे बैलेंस करके रखने की जद्दोजहद जिससे आज का हर युवा एक अंदरूनी लड़ाई लड़ रहा है पर कई बार वह हार जाता है ..और इसके परिणामस्वरूप जो भयंकर रूप सामने आता है वह होता है आत्महत्या यानी अकाल मृत्यु...
लेकिन ऐसा क्यों..? आइए इस मुद्दे पर थोड़ी-सी चर्चा करते हैं। जब भी जीने के प्रति अगर हमारी ललक कम होने लगे, चारों ओर से नकारात्मक विचार हम पर प्रहार करना शुरू कर दें तो ऐसे समय में हमें ख़ुद से यह प्रयास करना चाहिए कि हमें अपना ध्यान दूसरी चीज़ों में लगाना चाहिए क्योंकि यह शुरुआती दौर होता है। जब मानसिक अवसाद हमें धीरे-धीरे अपनी चपेट में लेने की कोशिश करता है । ठीक उस वक़्त हमें अपने लिए कुछ परिवर्तन अपनाने चाहिए. मसलन किताबों से दोस्ती , अच्छा म्यूजिक सुनना या बागवानी करना या फिर ज़िंदगी को और क़रीब से जानने के लिए सैर -सपाटे के लिए निकल जाना. अपने व्यक्तित्व को जिस ढोंग के आवरण से हम ढककर ज़िंदगी जीते हैं उसको ज़रूरत है खींचकर फेंक देने की और साथ ही साथ जितना हो सके सोशल मीडिया के प्रयोग से बचने की क्योंकि यहाँ बहुत सारी नकारात्मकता भी क़ाबिज़ है जो आपके मन- मस्तिक पर बहुत ही बुरा प्रभाव भी डालती है जिसकी वजह से कई बार हम कमज़ोर पड़ जाते हैं.
हम में से कई लोग हैं जो कई-कई घंटे अपने हाथों में फोन को पकड़े न जाने क्या- क्या स्क्रॉल करते रहते हैं देर रात तक जाग कर.कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपना वजूद तलाशते फिरते रहते हैं लेकिन हमें पता है इससे हमें कुछ हासिल नहीं होने वाला है। इससे तो बेहतर होगा कि हम जमकर नींद लें, थका हुआ मन-शरीर हमेशा ग़लत राह पर ले जाता है। हो सके तो ध्यान एवं योगा को अपनी दिनचर्या में ज़रूर शामिल करें ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से मिलें-जुलें.मैं मानती हूँ कि आजकल काम का बोझ या रिश्तो में आया ख़ालीपन भी डिप्रेशन की प्रमुख वजह बनती जा रही है लेकिन कुछ तरीक़े अपनाकर हम ख़ुद की रक्षा कर सकते हैं। अपने परिवार, मित्रों के साथ जितना हो सके वक़्त बिताएँ, लगातार काम करने के प्रभाव में न रहें; वीकेंड पर बाहर जाएँ या लंबी छुट्टियाँ लें. ये सारी गतिविधियाँ आपको रिफ़्रेश करेंगीं, आप दोबारा अगले कार्य के लिए रिचार्ज हो जाएँगे और साथ ही साथ अपने खाने-पीने का भी ख़याल रखें.कभी-कभार शर्म को ताक पर रखकर सड़क किनारे गोलगप्पे भी खा लिया करें.तन की ख़ुशी से ज़्यादा मन की ख़ुशी अहमियत रखती है कभी-कभी...
दरअसल डिप्रेशन एक ऐसा कारक है जो हमें वास्तविकता से काटकर काल्पनिकता के भंवरजाल में उलझाता जाता है। जहाँ हम चीज़ों को अपने मन-मुताबिक़ होते हुए देखना चाहते हैं।
बेहतर होगा कि हम कुछ लिखा करें, किताबों के साथ अपना नाता जोड़ें; अपने बारे में अपने आसपास की घटनाओं के बारे में जितना भी हम लिखेंगे अपने तनाव को हम उतना ही कम करेंगे. अन्य बातों में नकारात्मक लोगों से दूरियाँ बनाना ज़रूरी है. नकारात्मकता से भरे लोग हमेशा ग़लत राह ही दिखाते हैं। कभी-कभी हार भी मान लिया करें. दूसरे लोग अगर हमसे श्रेष्ठ हैं तो उस सचाई को स्वीकारना भी बहुत बड़ी ताक़त है.
जो बुरा हो चुका है उससे और भी बुरा हो सकता है उन परिस्थितियों तक सोचे जाने की स्थिति से बचना चाहिए.
वो कहते ना "when there is a will there is a way'
हिम्मत करके आगे बढ़ने वालों की कभी हार नहीं होती है..।
अगर मन में घबराहट या आशंका बढ़ने लगी है तो किसी मित्र या मनोचिकित्सक से ज़रूर सलाह परामर्श करें. इसमें शर्माएँ नहीं क्योंकि यह हमारी ज़िंदगी है जिसे हमें ख़ुद ही संभालकर रखना है
कवि शैलेंद्र जी की चंद पंक्तियां यहां जोड़ना चाहूंगी-
ये ग़म के और चार दिन ,
सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाएँगें गुज़र,
गुज़र गए हज़ार दिन....
सबसे बड़ी बात अपनी ज़िंदगी से प्यार करना सीखो.अगर आप ख़ुद से प्यार करेंगे तो कभी भी कोई भी मुसीबत आपको हरा नहीं सकती है। आप हर फील्ड में सबसे आगे एक योद्धा बनकर निकलोगे.
@अनीता लागुरी "अनु'
रविवार, 31 मई 2020
शुक्रवार, 1 मई 2020
लौटना चाहता हूँ घर की ओर
#एक कविता उन मज़दूरों के नाम जो कोरोना की वजह से घरों की ओर लौट रहे हैं |
...........................
शहरों में कहाँ ख़ाली हो गए मज़दूरों के घर
बन बंजारा मज़दूर चल दिए
अपने गाँव - घर
रास्ते की थकान को कम करने के लिए
वह लिखता है ख़ुद पर एक कविता-
हर रात
अपनी हिम्मत को समेटे चल पड़ता हूँ
अनगिनत लोगों की भीड़ में
कभी हँसता हुआ
तो कभी गहन चिंता में डूबा हुआ
बस चलता जाता हूँ
और भूल जाता हूँ
रास्ते में मिलीं अनगिनत ठोकरों को
श्वांस को अंदर करके
अपनी चप्पल में बन आए छेद को
अपने दर्द से सीता हूँ
लेकिन रुकता नहीं हूँ
पहूँचना चाहता हूँ उन गलियों में
जहाँ गांव के किनारे
लाल मिट्टी से रंगा
वह मेरा खपरैल का घर
मेरा इंतज़ार कर रहा होता है
फिर सुस्त हो जाता हूँ चलते- चलते
वहीं कहीं पेड़ की घनी छांव में
लेटकर तारों से बतियाना चाहता हूँ
मुन्ने की अम्मा को अपनी घर वापसी की बात बताना चाहता हूँ
लेकिन नहीं... समय नहीं है
फिर भी अंदर कहीं टटोलता हूँ ख़ुद को
तो पाता हूँ एक सहमा-सा बच्चा
जो अभी भी नहीं जानता
कि कितना सफ़र और उसे तय करना है।
अभी भी सड़क में बने गड्ढे में
जमा हुए पानी में
आँखमिचोली खेलते हुए
चाँद के गोलाकार अक्स को
गाँव के चूल्हे में चढ़ी
धू-धू करके जलती हुई लकड़ी
के मध्य बनती हुई रोटी समझ लेता हूँ
जबकि जानता हूँ
मेरे अँगौछे में एक सूखी रोटी भी नहीं
हाँ, मैं एक मज़दूर हूँ
बहुत खींचा तुम्हारे ठेले को
बहुत सँवारा मॉल और बिल्डिंग को
अब जाना चाहता हूँ घर की ओर!
@अनीता लागुरी 'अनु'
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020
.....
एक अंतहीन सफर का झूठा अंत (लघुकथा)
.....................
"अम्मा!
अब नहीं चला जाता है,
पैर दुखने लगे हैं |"
"अब अरे ऊ... देख सामने हमारे गांव की बस्ती नज़र आ रही है।
बस थोड़ा सब्र कर बिटिया हम पहुंचने ही वाले हैं|"
"क्या अम्मा, काहे तू झूठ बोल रही है!
"दूई दिन से तोहार ई बात सुन-सुनकर हमार कान पक गईल बा....
ऐ दिदीया!!
काहे तू अम्माँ को झूठी बोले है..!"
"ई मुआँ कोरोना ,नासपीटा,करमजला आ गईल वरना काहे हम लोगन गांव जाते..।"
अम्मा जब बोल रही है, थोड़ी देर में गांव पहुँच जाएँगे तो के केरे तू लपड़झपर कर रही है।"
दे ना ..अम्माँ वो चॉकलेट तुहार साड़ी में बंधल बा न..ईईईईईई दे ना गो.."
(छोटू को चाकलेट देकर बहला ले ..लेकिन मुझे)
धप्प से छुटकी ज़मीन पर बैठ गई ...
अब क्या कहे भाई से पिछली बार जब वो अम्मा-अब्बा
के साथ इस शहर आई थी,
तो पूरे चार दिन ट्रेन में बैठकर आई थी..
और अब कहाँ से एक ही दिन की यात्रा में गांव की बस्ती दिखने लगी वो |
छुटकी समझ गई इस अंतहीन यात्रा का सच |
अनीता लागुरी 'अनु'
एक अंतहीन सफर का झूठा अंत (लघुकथा)
.....................
"अम्मा!
अब नहीं चला जाता है,
पैर दुखने लगे हैं |"
"अब अरे ऊ... देख सामने हमारे गांव की बस्ती नज़र आ रही है।
बस थोड़ा सब्र कर बिटिया हम पहुंचने ही वाले हैं|"
"क्या अम्मा, काहे तू झूठ बोल रही है!
"दूई दिन से तोहार ई बात सुन-सुनकर हमार कान पक गईल बा....
ऐ दिदीया!!
काहे तू अम्माँ को झूठी बोले है..!"
"ई मुआँ कोरोना ,नासपीटा,करमजला आ गईल वरना काहे हम लोगन गांव जाते..।"
अम्मा जब बोल रही है, थोड़ी देर में गांव पहुँच जाएँगे तो के केरे तू लपड़झपर कर रही है।"
दे ना ..अम्माँ वो चॉकलेट तुहार साड़ी में बंधल बा न..ईईईईईई दे ना गो.."
(छोटू को चाकलेट देकर बहला ले ..लेकिन मुझे)
धप्प से छुटकी ज़मीन पर बैठ गई ...
अब क्या कहे भाई से पिछली बार जब वो अम्मा-अब्बा
के साथ इस शहर आई थी,
तो पूरे चार दिन ट्रेन में बैठकर आई थी..
और अब कहाँ से एक ही दिन की यात्रा में गांव की बस्ती दिखने लगी वो |
छुटकी समझ गई इस अंतहीन यात्रा का सच |
अनीता लागुरी 'अनु'
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आज फिर तुम साथ चले आए घर की दहलीज़ तक..! पर वही सवाल फिर से..! क्यों मुझे दरवाज़े तक छोड़ विलीन हो जाते हो इन अंधेरों मे...
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कभी चाहा नहीं कि अमरबेल-सी तुमसे लिपट जाऊँ ..!! कभी चाहा नहीं की मेरी शिकायतें रोकेंगी तुम्हें...! चाहे तुम मुझे न पढ...