चाय के पतीले में
वो चाय पत्ती नहीं,
बल्कि रिश्तो में उबल आई
कड़वाहट उबाल रही थी..।
ना चाहते हुए भी उस कड़वाहट को
जब वो सामने रखी कप में उड़ेलने लगी..!
उसका धुआँ - धुआँ होता मन
अतीत की परतें खुरचने लगा.!
और फैलाने लगा रिश्तो में बन आए बासी पन को
बस इस किचन के दरवाजे तक ही
उसकी हद थी!
उसके बाहर तो उसकी पैरों में,
बेड़ियाँ लगा दी जाती थी.
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#अनीतालागुरी
ओह , बहुत मार्मिक ।
जवाब देंहटाएंचाय की पत्ती बिम्ब अच्छा लगा । भावुक कर गयी ये रचना ।
लंबे अंतराल के बाद तुम्हारी रचना ब्लॉग पर पढ़ना अच्छा लग रहा अनु।
जवाब देंहटाएंबेहद गहन भाव उकेरे ह़ै।
मन को उद्वेलित करती रचना।
सस्नेह
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-07-2021को चर्चा – 4,140 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
कहने को तो हम इक्कीसवीं सदी में विचरण कर रहे हैं
जवाब देंहटाएंजल थल नभ में पँख फैला ली हैं बेटियाँ
लेकिन रचना भी सच्ची है
बहुत ही मार्मिक सृजन!
जवाब देंहटाएंमार्मिक
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