शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

एक दिन शहर ने कहा मुझसे....


एक दिन शहर ने कहा मुझसे
मेरे हिस्से में सुकून कब आएगा..?
समेटे फिरता हूँ सबको ख़ुद में..,
भला मेरे लिए साँसें कौन लेगा...!!
कौन होगा जो दो घड़ी बातें करेगा मुझसे
पूछेगा मुझसे क्या शहर 
शहर होने से
तुम थक तो नहीं गये...?
कितनी फैली है ज़मीन तुम्हारी
कितना चलते हैं लोग तुझ पर
रातों को भी नींद नसीब नहीं
लोग आते हैं थककर सुस्ताने तुझ तक
तुम्हारे तो पंख भी नहीं हैं
कि तुम उड़ जाओ सब छोड़कर
फैला लो हाथों को जितना भी तुम
लोग तुझमें  सिमट ही आयेंगे..
यह शहर शहर का खेल है
लौटकर कहाँ तुम जाओगे?
  @अनीता लागुरी "अनु"

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

तुम क्यों नहीं..?

रिश्तों के दरकने का ख़म्याज़ा 
सिर्फ़  मैं ही क्यों भुगतूँ
तुम क्यों नहीं..?
सवाल जो उठ आये मुझपर 
सभी की
उन सवालों की झड़ी
तुम पर क्यों नहीं..?
तुम्हारी नज़रें अभी भी नीचे नहीं हैं
पर मेरी नज़रों का क्या क़ुसूर
तुम्हें वह दर्द दिखता क्यों नहीं...??
हालात मैंने बनाये या तुमने
ये सवाल सुई की तरह मुझे चुभते हैं
पर शायद तुम्हें क्यों नहीं..?
अपने अहं के साथ तुम जीते रहे
तिल-तिल दर्द के साथ मैं मरती रही
पर मेरे जीने की वजह तुम क्यों नहीं..??
एक मैं ही क्यों वजह बनती रही
तुम्हारी हर दी हुई बात की
पर कमाल है दुनिया की नज़रों में तुम क्यों नहीं..?
तुम मेरे तने को काटते रहे
और मैं अधमरी पेड़ बन 
चुपचाप ज़ख़्मों को सीती रही।
यह दर्द तुमने कभी सहा ही नहीं..?
चीख़ना चाहती हूँ इन बंद दरवाज़ों के पीछे
ये स्याह अँधेरे मुझे डराते हैं।
पर तुम इन अँधेरों से डरते क्यों नहीं..?


#अनीता लागुरी 'अनु'

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

आवारा बादल


आवारा बादल,
शोर मचाते,
धोखेबाज   बादल,
छत पर आकर,
उछल-कूद करते,
नखरीले बादल,
पास जाकर देखूँ तो,
दूर कहीं छिप जाते बादल,
मनमर्ज़ी करते ,
विशालकाय बादल!
@अनीता लागुरी "अनु"

शनिवार, 10 नवंबर 2018

माँ


 न जाने कौन से देश तू बसती है

 अक्सर तेरी याद रह-रह आती है

 समेटने बैठी हूँ तेरी यादों को

 पर कागज़  के पन्नों में भी तू नहीं समाती है!

 आँख खुली थी गोद में तेरी

 पर तू ने दम तोड़ा हाथों में मेरे..!!

 मैंने कहा मत जाओ माँ 

 तूने कहा तेरी शरारत अब सही नहीं जाती,

 थक गयी हूँ बिटिया मेरी

 अब धूल में लोटने की मेरी बारी,

 माँ तू तो चल दी जाने किस देश, शहर में

 पर जब भी कसकर जुड़ा बाँधूँ 

 कड़वे  नीम का एहसास आँखों को रुला जाता है मेरे,

 चंदा की लोरियाँ सुनाते-सुनाते तू ख़ुद  ही चल दी चंदा के घर ,

 आ देख शरारत मेरी

 सर पर डाल तेरी शादी का जोड़ा,

 आँचल  को गंदा कर बैठी हूं

चाहती हूँ  तू पास आकर मेरे

 फिर से लगा दे गालों पे चपत मेरी।

 और प्यारी सी झिड़की देकर मुझसे कहे

 तुझे कब अक्ल आएगी



      @अनीता लागुरी "अनु"

रविवार, 5 अगस्त 2018

"मैं"

जब मैं जागी
मुड़ कर देखा मैंने
रह गई थी
कुछ सिल्वटे चादर की ना जाने क्यों...!!
उन्हें छूने को हाथ बढ़ाया
पर कांप उठा....!
निर्बल चितवन सारा..!!
क्षणिक राह  कि मैं पथिक
हक कहां मुझे...
सुकून भरी रातों का...!!
व्यर्थ प्रेम की
अंकिचन अभिलाषा लिए,
टूटे दर्पण में,
घायल अक्स..तलाशती रही।
और  किरचियां जीवन की
मुझसे कहती  रही..!!
वो  देखो...!!
अश्रु में डूबी
कश्ती तुम्हारे जीवन की,
चाह कर भी ,
मन को तुम्हारे....
बांध ना पाई..!!
बस एक ही हाथ जुड़ा था!!
वो था तुम्हारा...!!
    अनु 

सोमवार, 2 जुलाई 2018

#घुटन सी होने लगी है अब

छोड़ आई हूं,
सीलन से भरी
घुटती वो रातें,
जहां हर रात,
रिश्तों का मेरे,
दाह-संस्कार करते हो,
मेरी खिलखिलाती हंसी पर,
राक्षस बन प्रहार करते हो,
            सिर्फ़
किचन और देह से जुड़ा
नहीं हे  ये रिश्तों का गणित,
मेरी मन की बगिया,
तुम्हारे अनगिनत स्पर्शो,
में झांकते हुए जीवन
का प्रत्युतर चाहती है,
पर तुमने.......!!!
अपने हिस्से में
कभी मुझे बसने ही नहीं दिया,,
हर बार रखा,
किसी किराएदार की तरह,
और मेरे अंतर्मन को
भेदते रहें,
नुकीले दांतो के
शब्द बाण की तरह...!!
अपनापन तो कभी, देखा ही
नहीं तुम्हारी आंखों में,
देह का विन्यास ,
रिश्ता नहीं बनाता है..!!!
              अनु,🍂🍁 