बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

बस करो..!!

मैं कब तक चीखती रहूं चिल्लाती रहूं ....ये तो अंधे हैं बहरे हैं, गूंगे हैं । इनकी आत्माएं मरी हुई है...  मुझे मार कर संतुष्ट होते हो ना लो मारो मुझे मेरी चमड़ी के हर हिस्से को लाल कर दो और जब मैं चीखना चाहूं बांध के  कपड़ा मेरे मुंह में वही कोने में मुझे फिकवा  दो.....  बस बर्दाश्त करना आता है मुझे ..... जानती हूं जब मैं दर्द से बिलखती हूं तुम्हारे चेहरे पर असीम संतुष्टि के भाव उत्पन्न होते हैं एक विजेता की गर्वान्वित मुस्कान तुम अपने होठों पर लाते हो और चीखकर कहते हो और लड़ाईगी जुबान मुझसे  .... और मैं गूंगी जुबान अंदर ही अंदर चीखने की भरपूर कोशिश करती हूं,    और वही उस ठंडे फर्श में पड़े-पड़े सुबह होने का इंतजार करते करते एक ओर रात मर मर के गुजार देती हूं,
                                                अनु

3 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२० -१०-२०१९ ) को " बस करो..!! "(चर्चा अंक- ३४९४) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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  2. शोषण के खिलाफ एक सशक्त कविता,

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद नीलांश जी अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देने हेतु

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