आज फिर वो एक
भ्रम को पाले उठेगा
उठा के गमछा,कुदाल
पी के सत्तु का घोल
चल देगा सड़क की ओर
और लगेगा ताकने,
उस ओर , जहां आते हैं
लोग मज़दूरों को चुनने,
शायद उसकी,
बेबसी पसंद आ जाए किसी को,
और ले चले उसे,
कंक्रीट के शहरों में,
जोतने उसका खेत,
और शाम ढले उसे मिलते हैं ,
कुछ सिक्को में समाए हुए
उसके भ्रम,
ओढ़कर अपनी पसलियों को
एक मरी मुस्कान के साथ
थमा वो चंद सिक्के,
अपनी बीवी की हथेलियों में
और कहता है,
ले के आ जुगाड़,
वो भी दौड़ पड़ती है,
उठा के थैला,
भ्रम के चंद सपने खरीदने,
ये कहानी है,
एक आम मज़दूर की,
व्यवस्था के ढ़ेर पर
बैठे परिवर्तन की प्रतीछा करते,
दिग्भ्रमित सपनों की,
जिन्हें सिर्फ़ आता है,
अनाज के चंद दाने उगाना
वरना गमछे में ही,
उन्हें जीवन का सारा सच
निचोड़ना आता है।
#अनीता लागुरी (अनु)
भ्रम को पाले उठेगा
उठा के गमछा,कुदाल
पी के सत्तु का घोल
चल देगा सड़क की ओर
और लगेगा ताकने,
उस ओर , जहां आते हैं
लोग मज़दूरों को चुनने,
शायद उसकी,
बेबसी पसंद आ जाए किसी को,
और ले चले उसे,
कंक्रीट के शहरों में,
जोतने उसका खेत,
और शाम ढले उसे मिलते हैं ,
कुछ सिक्को में समाए हुए
उसके भ्रम,
ओढ़कर अपनी पसलियों को
एक मरी मुस्कान के साथ
थमा वो चंद सिक्के,
अपनी बीवी की हथेलियों में
और कहता है,
ले के आ जुगाड़,
वो भी दौड़ पड़ती है,
उठा के थैला,
भ्रम के चंद सपने खरीदने,
ये कहानी है,
एक आम मज़दूर की,
व्यवस्था के ढ़ेर पर
बैठे परिवर्तन की प्रतीछा करते,
दिग्भ्रमित सपनों की,
जिन्हें सिर्फ़ आता है,
अनाज के चंद दाने उगाना
वरना गमछे में ही,
उन्हें जीवन का सारा सच
निचोड़ना आता है।
#अनीता लागुरी (अनु)