जब मैं जागी
मुड़ कर देखा मैंने
रह गई थी
कुछ सिल्वटे चादर की ना जाने क्यों...!!
उन्हें छूने को हाथ बढ़ाया
पर कांप उठा....!
निर्बल चितवन सारा..!!
क्षणिक राह कि मैं पथिक
हक कहां मुझे...
सुकून भरी रातों का...!!
व्यर्थ प्रेम की
अंकिचन अभिलाषा लिए,
टूटे दर्पण में,
घायल अक्स..तलाशती रही।
और किरचियां जीवन की
मुझसे कहती रही..!!
वो देखो...!!
अश्रु में डूबी
कश्ती तुम्हारे जीवन की,
चाह कर भी ,
मन को तुम्हारे....
बांध ना पाई..!!
बस एक ही हाथ जुड़ा था!!
वो था तुम्हारा...!!
अनु
मुड़ कर देखा मैंने
रह गई थी
कुछ सिल्वटे चादर की ना जाने क्यों...!!
उन्हें छूने को हाथ बढ़ाया
पर कांप उठा....!
निर्बल चितवन सारा..!!
क्षणिक राह कि मैं पथिक
हक कहां मुझे...
सुकून भरी रातों का...!!
व्यर्थ प्रेम की
अंकिचन अभिलाषा लिए,
टूटे दर्पण में,
घायल अक्स..तलाशती रही।
और किरचियां जीवन की
मुझसे कहती रही..!!
वो देखो...!!
अश्रु में डूबी
कश्ती तुम्हारे जीवन की,
चाह कर भी ,
मन को तुम्हारे....
बांध ना पाई..!!
बस एक ही हाथ जुड़ा था!!
वो था तुम्हारा...!!
अनु